दक्षिण बस्तर में थानों पर हमले एवं हथियार लूटने की दर्जनों घटनाएं हो चुकी हैं, किंतु इसके बावजूद थाने अभी तक सुसज्जित नहीं किए जा सके हैं. पुलिस प्रशासन की सुस्ती का इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए कि गरियाबंद पुलिस जिले में पांच नए थाने अब तक खुल नहीं सके हैं, जबकि इनकी स्थापना का ऐलान 10 माह पूर्व किया गया था. बस्तर रेंज में अभी भी विभिन्न स्तर के 378 पदों का खाली रहना इस बात का प्रमाण है कि नक्सली मोर्चे पर वैसी तत्परता और स्फूर्ति नहीं दिखाई जा रही है जैसे कि उम्मीद की जाती है. जबकि पुलिस में संख्या बल बढ़ाने, जवानों को अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध कराने, उन्हें जंगलवार के लिए प्रशिक्षित करने एवं एंटी लैंडमाइन व्हीकल जैसे संसाधनों से लैस करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार अब तक करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है. नतीजा यकीनन शून्य है.
लेकिन नाउम्मीदी नहीं है. दरअसल सलवा जुडूम से माओवादी जिस तरह घबराए हुए थे, वैसी ही घबराहट उनमें फिर देखी जा रही है. और इसकी वजह है सेना का प्रशिक्षण केंद्र. पिछले वर्ष के अंत में बस्तर में सेना का प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का रणनीतिक निर्णय लिया गया था. भले ही सेना की ओर से यह कहा जा रहा हो कि बस्तर के घने जंगल जंगलवार प्रशिक्षण के लिए सबसे बेहतर हैं इसलिए उसे चुना गया है, किंतु जाहिर तौर पर इस निर्णय के पीछे दोहरा मकसद है. राज्य सरकार की रजामंदी के साथ केंद्र सरकार द्वारा लिए गए इस निर्णय का माओवादियों ने खुलकर विरोध किया, जो अभी भी जारी है.
सरकारी निर्णय के तहत धुर नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ में सैन्य प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई है. राज्य सरकार ने इसके लिए 750 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा सेना को उपलब्ध करा दिया और पहली बिग्रेड के 2500 जवान नारायणपुर पहुंच गए. इन्हें नारायणपुर, बस्तर एवं कांकेर में गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा. छत्तीसगढ़-उड़ीसा सब एरिया हेड क्वार्टर के सीईओ ब्रिगेडियर अमरीक सिंह के अनुसार सेना बस्तर में ट्रेनिंग के लिए है, नक्सलियों से लडऩे के लिये नहीं. लेकिन यह बात आइने की तरह साफ है कि प्रशिक्षण की आड़ में सेना को क्या करना है. हालांकि रक्षा और विधि मंत्रालय ने उसके लिए मार्गदर्शी सिद्धांत तय कर दिए हैं. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सलियों को अबूझमाड़ से खदेडऩे अथवा हमले की सूरत में उन्हें मार गिराने की छूट सेना को मिली हुई है. माओवादी इसी वजह से बेहद घबराए हुए हैं. अबूझमाड़ उनका वर्षों पुराना सबसे सुरक्षित इलाका है, जहां उनकी सरकार चलती है. ऐसे इलाके में सेना की तैनाती एवं युद्धाभ्यास शिविर का मतलब है नक्सलियों की जड़ों पर प्रहार. यद्यपि माओवादी यह तर्क देते हैं कि सेना की नियुक्ति से क्षेत्र में अशांति फैलेगी और निरपराध आदिवासी मारे जाएंगे किंतु बड़ा सच तो यह है कि इससे उन आदिवासियों का हौसला बढ़ेगा जो नक्सलियों की ज्यादतियों से त्रस्त हैं और उनसे छुटकारा चाहते हैं.
हालांकि 'सैन्य अभियान’ में गेंहू के साथ धुन पिसने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए 'सफाई अभियान’ आम आदिवासी भी मारे जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बीते दशक में पुलिस मुठभेड़ों तथा नक्सली विस्फोटों में बस्तर में ही 500 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं.
वर्ष 2010 में देश में 1169 लोग माओवादी हिंसा के शिकार हुए. 10 अक्टूबर 2010 को महासमुंद के सांकरा गांव में पुलिस ने 6 नक्सलियों को मार गिराया किंतु इस अभियान में दो ग्रामीण भी मारे गए. यानी हिंसा और प्रतिहिंसा के इस खेल में मासूम जाने पहले भी जाती रही है. इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि नक्सली उन्मूलन अभियान की चपेट में बेकसूर आ सकते हैं. फिर भी बस्तर की 'आजादी’ में यदि सेना की कोई भूमिका हो सकती है तो निश्चय ही उन आदिवासियों की भी भूमिका होगी, जो निर्भय होकर आतंक से मुकाबला कर रहे हैं और जिन्हें अपनी जान की परवाह नहीं है. लेकिन यह बात साफ है कि यहां सेना को भी बहुत संयम का परिचय देना होगा खासकर गांवों में नक्सलियों से मुठभेड़ की स्थिति में.
आगे बढऩे के पूर्व जरा उन घटनाओं को याद कर लें जिन्हें माओवादियों ने अभी हाल ही में संपन्न 'जनपितुरी सप्ताह’ के अंतर्गत अंजाम दिया है. 17 मई को सुकमा- (7 जवान शहीद), 19 मई छत्तीसगढ़ से सटे गढ़चिरौली (5 शहीद), 23 मई गरियाबंद (9 शहीद), 9 जून को नारायणपुर (5 शहीद), 10 जून को दंतेवाड़ा, कटेकल्याण (10 शहीद) तथा 14 जून को सुकमा (3 जवान शहीद) की घटनाएं भीषण हैं. दरअसल यह पुलिस खुफिया तंत्र की विफलता एवं दिशा-निर्देश की अवहेलना है. हमेशा की तरह पुलिस यह स्वीकार करने तैयार नहीं है कि नक्सलियों का सूचना एवं मुखबिरी तंत्र उससे बेहतर है. जबकि ये घटनाएं सर्चिंग आपरेशन के दौरान लापरवाही का परिणाम हैं.
इससे शक नहीं कि नक्सली पुलिस से कहीं ज्यादा मुस्तैद हैं और एक निश्चित लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं जिसमें उसके मुखबिरों की भी महती भूमिका है. ऐसी स्थिति में नक्सलियों के नाश की उम्मीदें फोर्स की मौजूदगी के बावजूद कमजोर हैं क्योंकि बस्तर के घने जंगल एवं छोटे-छोटे टीलों में बसे आदिवासी आतंकित रहने के बावजूद अभी भी उनके सबसे बड़े रक्षक हैं. अब केंद्र एवं राज्य के संयुक्त अभियान का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, किसी तरह नक्सली कमांडरों को उनकी मांद से बाहर निकाला जाए. यह किस तरह संभव है, इस पर विचार करने की जरुरत है. गुप्त लेकिन पुष्ट सूचनाओं का प्रवाह ज्यादा कारगर होगा बशर्ते पर्याप्त सावधानी बरती जाए क्योंकि थोड़े से शक में मुखबिरों को जनअदालत लगाकर हत्या करने की दर्जनों घटनाएं घट चुकी हैं. इस साल अब तक नक्सलियों ने जिन 190 लोगों को मौत के घाट उतारा, उनमें से 72 पुलिस के मुखबिर होने के शक में मारे गए. इसीलिए पुलिस के पास मुखबिरों का अकाल है तथा वह नक्सलियों का विश्वास नहीं जीत पा रही है.
दक्षिण बस्तर में थानों पर हमले एवं हथियार लूटने की दर्जनों घटनाएं हो चुकी हैं, किंतु इसके बावजूद थाने अभी तक सुसज्जित नहीं किए जा सके हैं. पुलिस प्रशासन की सुस्ती का इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए कि गरियाबंद पुलिस जिले में पांच नए थाने अब तक खुल नहीं सके हैं, जबकि इनकी स्थापना का ऐलान 10 माह पूर्व किया गया था. बस्तर रेंज में अभी भी विभिन्न स्तर के 378 पदों का खाली रहना इस बात का प्रमाण है कि नक्सली मोर्चे पर वैसी तत्परता और स्फूर्ति नहीं दिखाई जा रही है जैसे कि उम्मीद की जाती है. जबकि पुलिस में संख्या बल बढ़ाने, जवानों को अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध कराने, उन्हें जंगलवार के लिए प्रशिक्षित करने एवं एंटी लैंडमाइन व्हीकल जैसे संसाधनों से लैस करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार अब तक करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है. नतीजा यकीनन शून्य है.लेकिन नाउम्मीदी नहीं है. दरअसल सलवा जुडूम से माओवादी जिस तरह घबराए हुए थे, वैसी ही घबराहट उनमें फिर देखी जा रही है. और इसकी वजह है सेना का प्रशिक्षण केंद्र. पिछले वर्ष के अंत में बस्तर में सेना का प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का रणनीतिक निर्णय लिया गया था. भले ही सेना की ओर से यह कहा जा रहा हो कि बस्तर के घने जंगल जंगलवार प्रशिक्षण के लिए सबसे बेहतर हैं इसलिए उसे चुना गया है, किंतु जाहिर तौर पर इस निर्णय के पीछे दोहरा मकसद है. राज्य सरकार की रजामंदी के साथ केंद्र सरकार द्वारा लिए गए इस निर्णय का माओवादियों ने खुलकर विरोध किया, जो अभी भी जारी है.
सरकारी निर्णय के तहत धुर नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ में सैन्य प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई है. राज्य सरकार ने इसके लिए 750 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा सेना को उपलब्ध करा दिया और पहली बिग्रेड के 2500 जवान नारायणपुर पहुंच गए. इन्हें नारायणपुर, बस्तर एवं कांकेर में गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा. छत्तीसगढ़-उड़ीसा सब एरिया हेड क्वार्टर के सीईओ ब्रिगेडियर अमरीक सिंह के अनुसार सेना बस्तर में ट्रेनिंग के लिए है, नक्सलियों से लडऩे के लिये नहीं. लेकिन यह बात आइने की तरह साफ है कि प्रशिक्षण की आड़ में सेना को क्या करना है. हालांकि रक्षा और विधि मंत्रालय ने उसके लिए मार्गदर्शी सिद्धांत तय कर दिए हैं. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सलियों को अबूझमाड़ से खदेडऩे अथवा हमले की सूरत में उन्हें मार गिराने की छूट सेना को मिली हुई है. माओवादी इसी वजह से बेहद घबराए हुए हैं. अबूझमाड़ उनका वर्षों पुराना सबसे सुरक्षित इलाका है, जहां उनकी सरकार चलती है. ऐसे इलाके में सेना की तैनाती एवं युद्धाभ्यास शिविर का मतलब है नक्सलियों की जड़ों पर प्रहार. यद्यपि माओवादी यह तर्क देते हैं कि सेना की नियुक्ति से क्षेत्र में अशांति फैलेगी और निरपराध आदिवासी मारे जाएंगे किंतु बड़ा सच तो यह है कि इससे उन आदिवासियों का हौसला बढ़ेगा जो नक्सलियों की ज्यादतियों से त्रस्त हैं और उनसे छुटकारा चाहते हैं.
हालांकि 'सैन्य अभियान’ में गेंहू के साथ धुन पिसने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए 'सफाई अभियान’ आम आदिवासी भी मारे जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बीते दशक में पुलिस मुठभेड़ों तथा नक्सली विस्फोटों में बस्तर में ही 500 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं.
वर्ष 2010 में देश में 1169 लोग माओवादी हिंसा के शिकार हुए. 10 अक्टूबर 2010 को महासमुंद के सांकरा गांव में पुलिस ने 6 नक्सलियों को मार गिराया किंतु इस अभियान में दो ग्रामीण भी मारे गए. यानी हिंसा और प्रतिहिंसा के इस खेल में मासूम जाने पहले भी जाती रही है. इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि नक्सली उन्मूलन अभियान की चपेट में बेकसूर आ सकते हैं. फिर भी बस्तर की 'आजादी’ में यदि सेना की कोई भूमिका हो सकती है तो निश्चय ही उन आदिवासियों की भी भूमिका होगी, जो निर्भय होकर आतंक से मुकाबला कर रहे हैं और जिन्हें अपनी जान की परवाह नहीं है. लेकिन यह बात साफ है कि यहां सेना को भी बहुत संयम का परिचय देना होगा खासकर गांवों में नक्सलियों से मुठभेड़ की स्थिति में.
आगे बढऩे के पूर्व जरा उन घटनाओं को याद कर लें जिन्हें माओवादियों ने अभी हाल ही में संपन्न 'जनपितुरी सप्ताह’ के अंतर्गत अंजाम दिया है. 17 मई को सुकमा- (7 जवान शहीद), 19 मई छत्तीसगढ़ से सटे गढ़चिरौली (5 शहीद), 23 मई गरियाबंद (9 शहीद), 9 जून को नारायणपुर (5 शहीद), 10 जून को दंतेवाड़ा, कटेकल्याण (10 शहीद) तथा 14 जून को सुकमा (3 जवान शहीद) की घटनाएं भीषण हैं. दरअसल यह पुलिस खुफिया तंत्र की विफलता एवं दिशा-निर्देश की अवहेलना है. हमेशा की तरह पुलिस यह स्वीकार करने तैयार नहीं है कि नक्सलियों का सूचना एवं मुखबिरी तंत्र उससे बेहतर है. जबकि ये घटनाएं सर्चिंग आपरेशन के दौरान लापरवाही का परिणाम हैं.
इससे शक नहीं कि नक्सली पुलिस से कहीं ज्यादा मुस्तैद हैं और एक निश्चित लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं जिसमें उसके मुखबिरों की भी महती भूमिका है. ऐसी स्थिति में नक्सलियों के नाश की उम्मीदें फोर्स की मौजूदगी के बावजूद कमजोर हैं क्योंकि बस्तर के घने जंगल एवं छोटे-छोटे टीलों में बसे आदिवासी आतंकित रहने के बावजूद अभी भी उनके सबसे बड़े रक्षक हैं. अब केंद्र एवं राज्य के संयुक्त अभियान का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, किसी तरह नक्सली कमांडरों को उनकी मांद से बाहर निकाला जाए. यह किस तरह संभव है, इस पर विचार करने की जरुरत है. गुप्त लेकिन पुष्ट सूचनाओं का प्रवाह ज्यादा कारगर होगा बशर्ते पर्याप्त सावधानी बरती जाए क्योंकि थोड़े से शक में मुखबिरों को जनअदालत लगाकर हत्या करने की दर्जनों घटनाएं घट चुकी हैं. इस साल अब तक नक्सलियों ने जिन 190 लोगों को मौत के घाट उतारा, उनमें से 72 पुलिस के मुखबिर होने के शक में मारे गए. इसीलिए पुलिस के पास मुखबिरों का अकाल है तथा वह नक्सलियों का विश्वास नहीं जीत पा रही है.
लेकिन नाउम्मीदी नहीं है. दरअसल सलवा जुडूम से माओवादी जिस तरह घबराए हुए थे, वैसी ही घबराहट उनमें फिर देखी जा रही है. और इसकी वजह है सेना का प्रशिक्षण केंद्र. पिछले वर्ष के अंत में बस्तर में सेना का प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का रणनीतिक निर्णय लिया गया था. भले ही सेना की ओर से यह कहा जा रहा हो कि बस्तर के घने जंगल जंगलवार प्रशिक्षण के लिए सबसे बेहतर हैं इसलिए उसे चुना गया है, किंतु जाहिर तौर पर इस निर्णय के पीछे दोहरा मकसद है. राज्य सरकार की रजामंदी के साथ केंद्र सरकार द्वारा लिए गए इस निर्णय का माओवादियों ने खुलकर विरोध किया, जो अभी भी जारी है.
सरकारी निर्णय के तहत धुर नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ में सैन्य प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई है. राज्य सरकार ने इसके लिए 750 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा सेना को उपलब्ध करा दिया और पहली बिग्रेड के 2500 जवान नारायणपुर पहुंच गए. इन्हें नारायणपुर, बस्तर एवं कांकेर में गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा. छत्तीसगढ़-उड़ीसा सब एरिया हेड क्वार्टर के सीईओ ब्रिगेडियर अमरीक सिंह के अनुसार सेना बस्तर में ट्रेनिंग के लिए है, नक्सलियों से लडऩे के लिये नहीं. लेकिन यह बात आइने की तरह साफ है कि प्रशिक्षण की आड़ में सेना को क्या करना है. हालांकि रक्षा और विधि मंत्रालय ने उसके लिए मार्गदर्शी सिद्धांत तय कर दिए हैं. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सलियों को अबूझमाड़ से खदेडऩे अथवा हमले की सूरत में उन्हें मार गिराने की छूट सेना को मिली हुई है. माओवादी इसी वजह से बेहद घबराए हुए हैं. अबूझमाड़ उनका वर्षों पुराना सबसे सुरक्षित इलाका है, जहां उनकी सरकार चलती है. ऐसे इलाके में सेना की तैनाती एवं युद्धाभ्यास शिविर का मतलब है नक्सलियों की जड़ों पर प्रहार. यद्यपि माओवादी यह तर्क देते हैं कि सेना की नियुक्ति से क्षेत्र में अशांति फैलेगी और निरपराध आदिवासी मारे जाएंगे किंतु बड़ा सच तो यह है कि इससे उन आदिवासियों का हौसला बढ़ेगा जो नक्सलियों की ज्यादतियों से त्रस्त हैं और उनसे छुटकारा चाहते हैं.
हालांकि 'सैन्य अभियान’ में गेंहू के साथ धुन पिसने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए 'सफाई अभियान’ आम आदिवासी भी मारे जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बीते दशक में पुलिस मुठभेड़ों तथा नक्सली विस्फोटों में बस्तर में ही 500 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं.
वर्ष 2010 में देश में 1169 लोग माओवादी हिंसा के शिकार हुए. 10 अक्टूबर 2010 को महासमुंद के सांकरा गांव में पुलिस ने 6 नक्सलियों को मार गिराया किंतु इस अभियान में दो ग्रामीण भी मारे गए. यानी हिंसा और प्रतिहिंसा के इस खेल में मासूम जाने पहले भी जाती रही है. इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि नक्सली उन्मूलन अभियान की चपेट में बेकसूर आ सकते हैं. फिर भी बस्तर की 'आजादी’ में यदि सेना की कोई भूमिका हो सकती है तो निश्चय ही उन आदिवासियों की भी भूमिका होगी, जो निर्भय होकर आतंक से मुकाबला कर रहे हैं और जिन्हें अपनी जान की परवाह नहीं है. लेकिन यह बात साफ है कि यहां सेना को भी बहुत संयम का परिचय देना होगा खासकर गांवों में नक्सलियों से मुठभेड़ की स्थिति में.
आगे बढऩे के पूर्व जरा उन घटनाओं को याद कर लें जिन्हें माओवादियों ने अभी हाल ही में संपन्न 'जनपितुरी सप्ताह’ के अंतर्गत अंजाम दिया है. 17 मई को सुकमा- (7 जवान शहीद), 19 मई छत्तीसगढ़ से सटे गढ़चिरौली (5 शहीद), 23 मई गरियाबंद (9 शहीद), 9 जून को नारायणपुर (5 शहीद), 10 जून को दंतेवाड़ा, कटेकल्याण (10 शहीद) तथा 14 जून को सुकमा (3 जवान शहीद) की घटनाएं भीषण हैं. दरअसल यह पुलिस खुफिया तंत्र की विफलता एवं दिशा-निर्देश की अवहेलना है. हमेशा की तरह पुलिस यह स्वीकार करने तैयार नहीं है कि नक्सलियों का सूचना एवं मुखबिरी तंत्र उससे बेहतर है. जबकि ये घटनाएं सर्चिंग आपरेशन के दौरान लापरवाही का परिणाम हैं.
इससे शक नहीं कि नक्सली पुलिस से कहीं ज्यादा मुस्तैद हैं और एक निश्चित लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं जिसमें उसके मुखबिरों की भी महती भूमिका है. ऐसी स्थिति में नक्सलियों के नाश की उम्मीदें फोर्स की मौजूदगी के बावजूद कमजोर हैं क्योंकि बस्तर के घने जंगल एवं छोटे-छोटे टीलों में बसे आदिवासी आतंकित रहने के बावजूद अभी भी उनके सबसे बड़े रक्षक हैं. अब केंद्र एवं राज्य के संयुक्त अभियान का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, किसी तरह नक्सली कमांडरों को उनकी मांद से बाहर निकाला जाए. यह किस तरह संभव है, इस पर विचार करने की जरुरत है. गुप्त लेकिन पुष्ट सूचनाओं का प्रवाह ज्यादा कारगर होगा बशर्ते पर्याप्त सावधानी बरती जाए क्योंकि थोड़े से शक में मुखबिरों को जनअदालत लगाकर हत्या करने की दर्जनों घटनाएं घट चुकी हैं. इस साल अब तक नक्सलियों ने जिन 190 लोगों को मौत के घाट उतारा, उनमें से 72 पुलिस के मुखबिर होने के शक में मारे गए. इसीलिए पुलिस के पास मुखबिरों का अकाल है तथा वह नक्सलियों का विश्वास नहीं जीत पा रही है.
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