मूर्तियों को दीये हम दिखाते रहे, और धूनी तुम्हारी रमाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन, चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन, चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
फिर तुम्हें ढूंढने चित्रकारी चली ज्ञान, भाषा, कला की सवारी चली
पर तुम्हारा पता आज तक न चला तो धरम लड़ गए, चांदमारी चली
पर तुम्हारा पता आज तक न चला तो धरम लड़ गए, चांदमारी चली
यह कोई ढूंढने का रास्ता नहीं है।
न तो भाषा उसे ढूंढ सकती है, न विज्ञान, न दर्शन।
उसे खोजने का रास्ता तो प्रेम है।
हां, कभी-कभी संगीत में उसकी झलक आ आती है, क्योंकि संगीत में प्रेम की थोड़ी गंध उठ सकती है। और कभी-कभी काव्य में उसकी भनक पड़ती है, क्योंकि काव्य उसके प्रतिफलन को पकड़ लेता है। और कभी-कभी दो प्रेमियों के पास भी उसकी एकाध किरण उतर आती है, क्योंकि दो प्रेमी भी डूब जाते हैं, एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं।
हां, कभी-कभी प्रकृति के सौंदर्य को देख कर तुम्हें परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता है। न होता हो बहुत सचेतन रूप से--आभास होता हो, बहुत फीका-फीका, धुंध से भरा। मगर वह मनुष्य अभागा है, जिसने सुबह सूरज को उगते देखा, और जिसके भीतर कुछ भी न उगा! वह मनुष्य अंधा है, जिसने पूर्णिमा का चांद देखा, और पूर्णिमा के चांद में उसे अपने पूर्ण होने की संभावना का कोई दर्शन न हुआ! वह मनुष्य निश्चित ही बदकिस्मत है, जिसने फूल खिलते देखे और जिसे याद न आया कि मेरा फूल कब खिलेगा!
धर्म इन सबकी याददाश्त है। इन सारे स्मरणों का नाम है। धर्म सुरति है, स्मृति है, पुनः-स्मृति है। इस बात का बोध कि मैं कौन हूं! इस बात का बोध कि यह अस्तित्व क्या है!
धर्म इन सबकी याददाश्त है। इन सारे स्मरणों का नाम है। धर्म सुरति है, स्मृति है, पुनः-स्मृति है। इस बात का बोध कि मैं कौन हूं! इस बात का बोध कि यह अस्तित्व क्या है!
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