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मंगलवार, 22 मार्च 2011

cinema-cinema

शेख मुख्तार--एक मनमौजी फनकार

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दोस्तों
आपको यादों की भूली बिसरी खूबसूरत गलियों में ले चलते हैं जहाँ पर ऐसे माइल स्टोन एक्टर की चर्चा करेंगे जिन्होंने सीमित क्षमताओं की बदौलत अपनी उपस्थिति का सटीक अहसास कराया था. यह बात अलग है कि आज की पीढ़ी इस कलाकार से इत्तेफाक नहीं रखतीं. पर पुराने दौर के शौकीनों के लिए यह नाम मुस्कुराहट ला देता है. हम चर्चा कर रहे हैं शेख मुख्तार की. शेख मुख्तार वहीं एक्टर जिसके चेहरे पर चेचक के दाग थे. पर जब वह परदे पर आता था तो बस एक्टर ही रह जाता था.1950 से लेकर 1970 के दशक का यह बेजोड़ कलाकार अब गूगल के सर्च बाक्स में ढ़ूंढे नहीं मिलता. उनकी अभिनित फिल्में पूणे के एक लाइब्रेरी में सुरक्षित रखी हैं.

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ल सुडोल और आकर्षक था, अपितु छह फीट दो इंच के विशाल व्यक्तित्व का स्वामी था. 1941 में शेख मुख्तार की दूसरी फिल्मसन 1939 में निर्माता सागर की फिल्म एक ही रास्ता प्रदर्शित हुई तो दर्शकों ने एक ऐसे नायक को परदे पर पाया, जो न केव बहन प्रदर्शित हुई. नलिनी जयवंत फिल्म की मायिका थीं. 1944 में शेख मुख्तार की शहंशाह बाबर की सफलता के बाद छोटे-छोटे अंतराल के बाद फिल्में आती रहीं. भूख, टूटे तारे, दादा, घायल, उस्ताद पेड्रो, मंगू, मि. लम्बू, बेगुनाह, डाकू मानसिंह, गुरु और चेला जैसी कई फिल्में आई. अभिनेता के रुप में शेख मुख्तार की पुख्ता पहचान बनती गई.

फिल्मों में उन्हें शेख साहब के नाम से जाना जाता था. सन 1938 से आरंंभ हुई अभिनय की यात्रा 1980 तक चलीं. इन 40 वर्षों में शेख मुख्तार ने केवल 40 फिल्मों में ही काम किया. यह उल्लेखनीय बात है. जब वे परदे पर इंट्री करते थे तो लगता था सच में कोई विशाल व्यक्तित्व सामने है. वे पौरुष के प्रभानशाली व्यक्तित्व के प्रतीक थे. वह न केवल व्यक्तित्व के स्तर पर सबसे अलग महसूस होते थे, बल्कि उनकी चाल-ढाल और संवाद बोलने का अंदाज भी सबसे अलग था. इस अभिनेता के पास विलक्षण चेहरा भी था, जिस पर कठोरता का भाव था तो कोमलता का आभास भी था. एक सच यह भी है ऐसे अलग व्यक्तित्व वाले अभिनेता के लिए कहानी और चरित्र ढ़ूंढऩा कठिन होता है.

वास्तव में कम फिल्में करने का कारण उनके अनुरुप रोल न होना था. पर कुछ लोग शेख मुख्तार के मनमौजी व्यक्तित्व को इसका कारण मानते है. जब उन्हें भूमिकाओं की जरुरत होती थीं तो वह खुद अपने लिए फिल्में लिखवाते और उन्हें खुद ही बनाते थे. निर्माता के रुप में मि. लम्बू इनकी सफलतम फिल्म है. निर्माता के रुप में शेख मुख्तार ने 8 फिल्मों का निर्माण किया. सभी फिल्में ठीकठाक रहीं, कितुं अन्तिम फिल्म नूरजहाँ उनका अंत ही साबित हुई. नूरजहां अपने समय की बहुत बड़ी फिल्म थीं. शेख की इस महत्वाकांक्षी फिल्म पर लाखों रुपयों का दांव लगा था. निर्माता के रुप में नूरजहां शेख के लिए एक सपना थीं. अपने जीवन की सारी पूंजी शेख ने इस फिल्म पर झोंक दी थीं. इस जमाने के महंगे और नामचीन कलाकार प्रदीप कुमार और मीना कुमारी नूरजहां की प्रमुख भूमिकाओं में थे. वास्तव में शेख ने इस फिल्म को भव्यता के साथ फिल्माया था. फिल्म देखकर मुगले आजम और पुकार जैसी स्तरीय और विशाल फिल्मों के सेट याद आ जाते थे. मुगले आजम फिल्म में आपको शीशे का एक भव्य सेट याद होगा. ऐसे ही कई सेट नूरजहां में थे. दिल्ली के डिलाइट सिनेमा में नूरजहां का आल इंडिया प्रीमियर शो रखा गया. उस अवसर पर जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अबदुल्लाह मुख्यमंत्री के रुप में उपस्थित थे. फिल्म को सबने सराहा पर बड़ी मेगा हिट जैसे लक्षण फिल्म में मौजूद नहीं पाए गए. शेख के सपनों का शीशमहल टुूटने की कगार पर पहुँच गया. बाजार का कर्ज चढ़ गया. शेख ने हिम्मत नहीं हारी. उन दिनों रक्षा,शिक्षा और समाज कल्याण विभार ऐसी फिल्मों को खरीद लिया करते थे. जो उनके विभागों के लिए काम आ सकें. शेख ने वहाँ अपनी फिल्म बेचनी चाही, पर मंत्रालय ने उसे स्वीकार नहीं किया. शेख मुख्तार ने फिर हिम्मत दिखाई. फिल्म को सरहद पार पाकिस्तान में प्रदर्शित करने की योजना बनाई. सरकारी अड़चनों ने नाको चने चबा दिए, कस्टम विभाग से फिल्म छुड़ाने में. जैसे तैसे फिल्म छूटीं.

इसके बाद पाकिस्तान में विरोध मुखरित हो गए. पाकिस्तान सरकार ने एक समिति गठित कर फिल्म को प्रदर्शन की हरी झंडी दे दी. शेख मुख्तार अपनी सफलता पर खुश थे. शेख मुख्तार प्रसन्न होकर वापस लौट रहे थे. वे हवाई जहाज में थे, तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे अल्लाह को प्यारे हो गए. फिल्म जब पाकिस्तान में लगीं तो आश्चर्य के साथ बड़ी हिट साबित हुई. लाहौर, कराची, क्वेटा और हैदराबाद में फिल्म देखने के लिए लोगो का हूजूम उमड़ पड़ा था. भीड़ को नियंत्रित कराने के लिए फोर्स का सहारा लेना पड़ता था. शेख मुख्तार ने अपने सपने को साकार होते भले न देखा हो पर उनका सपना एक कहानी बनकर जरुर रह गया था.

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चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...

चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...संगीत की दुनिया अदभुत है साथियों . कहा जाता है संगीत मुरदा दिलों में जान डाल देता है. इसका सीधा मतलब यह है कि जिसे गीत-संगीत पसंद नहीं वह मुरदों से गया बीता है. जीवन कितना लंबा होता है और मौत कितनी छोटी होती है. बस एक हिचकी और उतार-चढ़ाव की भीड़ से भरी जिदंगी एक पल में खत्म. इस गीत में भी ऐसा ही होता है. जब बलराज साहनी दुनिया से उठ जाते हैं तो यह गीत परदे पे आता है.
अब न तो गीतकार राजेंद्र कृष्ण है, न संगीतकार चित्रगुप्त, न रफी और न पारिवारिक फिल्मों के स्थायी करुण नायक बलराज साहनी. मगर जब भी यह गीत अनचट्टे, कान में पड़ जाता है. इन चारों महानों के याद की लौ जेहन में तेज हो जाती है. याद आता है कैसे इस गीत ने देश को बांध दिया था. उन दिनों देहातों में, शादी ब्याह के मौके पर साउंड सर्विस वाले पहुंचने लगे थे और गानों के तवे बजाया करते थे. उन्हीं के जरिये यह गीत भी दूर-दराज गांवों तक पहुंच गया था. देहात के बूढ़े किसान और उनकी गृहिणियां इस गीत में अपनी सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति और सुदीर्घ भारतीय वैराग्य की छाया देखा करते थे. यह गीत आम आदमी के दैन्य को (जो गरीबी से उपजता है ) भली-भांति पकड़ता था. गीत में आने वाले पंछी, आबोदाना, जोगी वाला फेरा और पंख-पखेरु जैसे अलफाजों ने गांवों और सिनेमा को करीब ला दिया था.
1957 साल की बात है यह. देखा जाए तो इस मर्मस्पर्र्शी ग्राम्यगीत की विकट लोकप्रियता का कारण स्वयं राजेंद्र कृष्ण के बोल है. इतनी सरल सुदंर कविता, बोलचाल की सी रवानी, सादगी और जज्बात में डूबे लफ्ज, जिदंगी की तल्खों को बयान करता पंछी वाला रुपक, अंत तक इनका निर्वाह और कसा हुआ छंद छोटे मोटे इल्हाम से कम नहीं थे. राजेंद्र कृष्ण ने प्रदीप की याद दिला दी थीं.
दो भागों में इस लंबे गीत को उन्होंने एक अटूट सांस की तरह फूलों की हथेली पर उतार दिया था. काव्य की देवी उन पर रीझ जो गई थीं. दूसरा कमाल चित्रगुप्त ने किया था. उन्होंने ऐसी आसान हिदुंस्तानी धुन बनाई, ऐसा भावानुकूल वाध्य बजाया था, तबले से ऐसा सुसंगत काम लिया था, कि गीत दिलों में उतरता चला गया. आज भी ग्रामीण हिदुंस्तान की आत्मा को दर्शाने वाले चंद कालजयी गीतों में शायद इसी गीत का शुमार होगा. जरा इन गीतों को याद कीजिए- पिजंरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय, जुन्हरिया कटती जाए रे, जियरा जरत रहत दिन रैन, अजब तोरी दुनिया हो रामा, धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाए, तक तक तक तक तगिन तगिन गिन गिन रे और एक कली और दो पतियां, जाने हमरी सब बतियां वगैरह. फिल्म भाभी के चल उड़ जा रे पंछी में सदियों के ग्रामीण हिदुंस्तान का चिर-परिचित बूढ़ा किसान , नया होरी जिदंा हो गया था. यूं फिल्म की कथा गांव-गुठान से कोई वास्ता नहीं रखती थीं. पर यह गीत शहरों से ज्यादा गांवों में पसंद किया गया था. तब इस गीत को गांवों में जब कोई बीमार पड़ जाता था तो उसे यह गीत सुनाया जाता था. मां-बाप की, खेत-खलिहान की, बलवाड़ा के भरे-पूरे ताल की और शादी के साल की यादें ताजा होती है. उस बीमार को बड़ा सुकून मिलता था.
बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस गीत को ऐन इसी धुन में पहले तलत की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था. मगर बाद में ऐसा महसूसा गया कि गीत में जो सार्वभौमिक टच है, व्यथा-वेदना की उठान है और आकाशी विस्तार है, उसे देखते रफी का गायन ही गीत को पूरा कवर कर सकता है. आंकलन सही था. परदे पर रफी की आवाज ही आई और रफी ने इस गीत के ग्रामीण हिदुंस्तानी दर्द को देशव्यापी आयाम दे दिया. पढि़ए इस गीत को और खो जाइए यादों के पुराने गलियारों में-
चल उड़ जा रे पंछी..
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देश हुआ बेगाना-
चल उड़ जा रे पंछी..
खत्म हुए दिन उस डाली के, जिस पर तेरा बसेरा था,
आज यहां और कल हो वहां, ये जोगी वाला फेरा था,
ये तेरी जागीर नहीं थी, चार घड़ी का डेरा था,
सदा रहा है इस दुनिया में किसका आबोदाना.
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
तूने तूने तिनका तिनका चुनकर, नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी पांखें, धूप में गर्मी खाई
गम न कर जो तेरी मेहनत, तेरे काम न आई
अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
भूल जा अब वो मस्त हवा, वो उडऩा डॉली डॉली,
जग की आंख का कांटा बन गई, चाल तेरी मतवाली
कौंन भला उस बाग को पूछे हो न जिसका माली,
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
रोते हैं सब पंख पखेरु साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाए तूने अरमानों के मेले
भीगी आँखों से ही उनकी आज दुआंए ले ले
किसको पता है इस नगरी में कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..चल पंछी..
साफ है कि गीत किसी खास क्लाइमेक्स या अंत के लिए लिखा गया था. पर काव्य सृजन के साथ यह उत्तम संयोग रहा कि पंछी शब्द की लीड से एक बढिय़ा सिचुएशन गीत तैयार हो गया और संदर्भ के बाहर की व्यापक कविता भी बन गया. आज राजेंद्र कृष्ण बस इस गीत के लिए इतिहास है और रफी साहब? उनकी मत पूछिए. उनके बिना कोई भी चरम-गीत या पृष्ठभूमि गीत निष्प्राण है. सब जानते है कि संदेश की सार्वभौमिकता को अभिव्यक्त करने के लिए एक ब्रम्हाांडीय आवाज चाहिए. वह रफी साहब के पास थीं. एक न्याय इस तरह हुआ. साथ ही रफी ने इस गीत को ऐसी तल्लीनता, आत्मीयता और सूफी फकीरों के बैरागीपन से गाया कि आधे आँसू और आधी भूख से भरा कातर हिदुंस्तान इस गीत में बोल उठा. गीत हमें अवाक कर जाता है. यह रससिद्ध रफी की ताकत थीं. सोचता हूं यह करिश्मा कैसे होगा कि वक्त की घड़ी उल्टी घूम जाए मौत के हाथों छीने हुए माता-पिता फिर से मिल जाएं और उनकी जगमगाती आँखों में मैं खुद को एक बार बहचान सकूंँ.. क्या यह बताना पड़ेगा, दोस्तों कि आँखों की मौत से ही स्थायी विरह के थाप को भोगना शुरु होता है? किसी को खोना सर्वप्रथम आँखों को खोना है. कैसे कहूँ कि दिवंगत पिता याद आते हैं इस गीत में -और उनकी आँखें याद नहीं आतीं.
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ओमप्रकाश--कहीं मौत का अभिनय तो नहीं किया ?

ओमप्रकाश का पूरा नाम ओमप्रकाश बक्शी था. उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई थीं. उनमें कला के प्रति रुचि शुरु से थीं. लगभग 12 वर्ष की आयु में उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु कर दी. 1937 में ओमप्रकाश ने ऑल इंडिया रेडियों सीलोन में 25 रुपये वेतन में नौकरी की थीं. रेडियो पर उनका फतेहदीन कार्यक्रम बहुत पसंद किया गया. हिन्दी फिल्म जगत में ओमप्रकाश का प्रवेश बड़े फिल्मी अंदाज में हुआ. वे अपने एक मित्र के यहां शादी में गए हुए थे, जहां दलसुख पंचोली ने उन्हें देखा. फिर पंचौली ने तार भेजकर उन्हें लाहौर बुलवाया और फिल्म दासी के लिए 80 रुपये वेतन पर अनुबंधित कर लिया. उनकी पहली फिल्म दासी 1950 में प्रदर्शित हुई थीं. यह ओमप्रकाश की पहली बोलती फिल्म थीं. संगीतकार सी.रामचंद्र से ओमप्रकाश की अ'छी पटती थीं. इन दोनों ने मिलकर दुनिया गोल है, झंकार, लकीरे नामक फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद ओमप्रकाश ने खुद की फिल्म कंपनी बनाई और भैयाजी, गेटवे आफ इंडिया, चाचा जिदांबाद, संजोग आदि फिल्मों का निर्माण किया. बहुत कम लोग जानते हैं कि ओमप्रकाश ने कन्हैया फिल्म का निर्माण भी किया था, जिसमें राज कपूर और नूतन की मुख्य भूमिका थीं.

जिस खुले दिल से ओमप्रकाश ने दुनियादारी निभाई थीं इसके ठीक विपरित उनके अंतिम दिन गुजरे. उन्हीं दिनों ओमप्रकाश ने अपने साक्षात्कार में कहा था-सभी साथी एक एक करके चले गए.आगा, मुकरी, गोप, मोहनचोटी, कन्हैयालाल, मदनपुरी, केश्टो मुकर्जी आदि चले गए. बड़ा भाई बख्शीजंग बहादुर, छोटा भाई पाछी, बहनोई लालाजी, पत्नी प्रभा सभी तो चले गए...लाहौर में पैदा हुआ. बचपन में चंचल था. रामलीला प्ले में सीता बना करता था. क्लासिकल संगीत की खुजली थीं-10 साल सीखा. रेडियो सीलोन में खुद के लिखे प्रोग्राम पेश किया करता था. मेरा प्रोग्राम बहुत पापुलर हुआ. लोग मुझे देखते तो फतेहदीन नाम से पुकारते थे. असली नाम पर यह नाम हावी होने लगा.

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जिदंगी मुझ पर मेहरबान रही है. मैं जब फिल्मों में आया तो दूसरा विश्वयुध्द खत्म ही हुआ था. उन दिनों हिंदी फिल्मों में बहुत बड़े सितारे मोतीलाल, अशोककुमार, और पृथ्वीराज हुआ करते थे. मुझे एक कलाकार के रुप में अपनी सीमाओं का वास्तव में ज्ञान नहीं था. पौराणिक या ग्रामीण पात्रों को छोड़ मैंने सारे पात्र किए हैं. अपने समय में लोग मुझे डायनेमो कहा करते थे. मुझे जीवन में सफलता, असफलता और सराहना सभी कुछ मिले हैं. कई रंगारंग व्यक्ति मेरे जीवन में आए हैं. इनमें चार्ली चैपलिन, पर्ल एस.बक, सामरसेट मॉम,फ्रेंक काप्रा, जवाहरलाल नेहरुजी भी शामिल हैं.

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मैंने कई फाकापरस्ती के दिन भी देखे हैं. ऐसी भी हालत आई जब मैं तीन दिन तक भूखा रहा. मुझे याद है इसी हालात में दादर खुदादाद पर खड़ा था.भूख के मारे मुझे चक्कर से आने लगे ऐसा लगा कि अभी मैं गिर ही पड़ूंगा. करीब की एक होटल में दाखिल हुआ. बढिय़ा खाना खाकर और लस्सी पीकर बाहर जाने लगा तो मुझे पकड़ लिया गया. मैनेजर को अपनी मजबूरी बता दी और 16 रुपयो का बिल फिर कभी देने का वादा किया. मैनेजर को तरस आ गया वह मान गया. एक दिन जयंत देसाई ने मुझे काम पर रख लिया और 5000 रुपये दिए. मैंने इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थीं. सबसे पहले होटल वाले का बिल चुकाया था और 100 पैकेट सिगरेट के खरीद लिए. दोस्तो ये रोचक क्षण थे ओमप्रकाश के जीवन के.

ओमप्रकाश ने 350 के आसपास फिल्मों में काम किया. उनकी प्रमुख फिल्मों में पड़ोसन, जूली, दस लाख, चुपके-चुपके, बैराग, शराबी, नमक हलाल, प्याक किए जा, खानदान, चौकीदार,लावारिस, आंधी,लोफर, जंजीर आदि शामिल है. उनकी अंतिम फिल्म नौकर बीवी का थीं. अमिताभ ब"ान की फिल्मों में वे खासे सराहे गए थे. नमकहलाल का दद्दू और शराबी के मुंशीलाल को भला कौंन भूल सकता है?

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भारतीय रजतपट की पहली सुसंस्कृत तारिका --- देविका रानी

----------ak -naam जो आज भी चम्पे की टटकी कली की खुशबु का और भोर के तारे की शंाति, स्निग्धता और शुचिता का अहसास कराता है, वह नाम देविका रानी का है.पुरुषप्रधान समाज में दादा फालके पुरस्कार पाने वाली देविका रानी की एक फिल्म देखकर सुप्रसिद्ध बर्मिंघम पोस्ट ने लिखा - इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि देविका रानी के अभिनय में ऐसा गीतात्मक लालित्य और सम्मोहन है, जिसने एक सीधी सादी पटकथा को अद्भुत सौंदर्य की वस्तु बना दिया . रजत पट पर आने वाली वह अब तक की सबसे सुंदर नारी है. इस प्रकार देविका रानी ने अपने कुशल अभिनय और बेमिसाल सौंदर्य से पूरे लंदन को चकित कर दिया. कर्म देखने के बाद सरोजनी नायडू ने भी उन्हें बहुत सराहा.
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दुनिया एक रंगमंच है और दुनिया वाले रंगकर्मी. इम दुनिया में आने वाला हर प्राणी यहाँ आकर अपनी अपनी भूमिका निभाता है. तदोपंरात इस दुनिया से कूच कर जाता है. फिल्मों में कुछ कलाकार अपनी विशिष्टता से हमेशा याद किए जाते हैं. देविका रानी एक ऐसी ही अदाकारा थीं.जब जब सौंदर्य व प्रतिभा के अनोखे संगम की बात चलेगी तो देविका रानी की ही बात चलेगी. सिनेमा संसार के ग्लैमरस और इंद्रधनुषी परिवेश में उन्हें कभी फस्र्ट लेडी कहा गया, कभी सबसे सुंदर अभिनेत्री कहा गया, तो कभी बेहिसाब अधिकार सम्पन्न अभिनेत्री का खिताब दिया गया. फालके पुरस्कार पाने वाली सर्वप्रथम हस्ती देविका रानी ही थीं.फिल्म अछूत कन्या से अशोककुमार के साथ हिट जोड़ी की परंपरा शुरु करने वाली नायिका देविका रानी ही थीं. दरअसल भारतीय सिनेमा में स्त्री द्वारा नायिका के अभिनय की शुरुआत देविका रानी के नाम से होती है.
बॉम्बे टाकीज से शुरुआत करते है. हिमांशु राय भले बॉम्बे टॉकीज के संस्थापक-सृजक और सर्वेसर्वा थे, कितुं 220 स्त्री-पुरुषों को रोजी-रोटी देनेवाली इस विशाल संस्था की जिम्मेदारी देविका रानी ही संभालती थी. 1928-29 में इंग्लैंड में हिमांशु और देविका रानी की पहली मुलाकात हुई थीं. 16 फरवरी 1964 को फिल्म निर्माण संस्था की स्थापना हुई जिसे बॉम्बे टॉकीज नाम दिया गया. इस संस्था में पढ़े लिखे लोगों को प्रवेश दिया जाता था. निर्देशक शशधर मुखर्जी, अमिय चक्रवर्ती, अशोक कुमार, दिलीप कुमार जैसे जाने माने लीजेंड इसी संस्था की देन है. किशोर कुमार ने भी यहीं से कैरियर की शुरुआत की थीं. इस स्टूडियों और संस्था ने अभिनेता-लेखक-निर्देशक किशोर शाह, कॉमेडियन महमूद के पिता और डांस डाइरेक्टर मुमताज अली, अभिनेत्री स्नेहलता प्रधान, चरित्र अभिनेता नाना पलसीकर, लेखक-पत्रकार-फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास, गायिका-अभिनेत्री सुरैया, अमिय चक्रवर्ती तथा महान गीतकार प्रदीप कुमार जैसे नाम दिए हैं.
पाशात्य संस्कारों में पली बढ़ी देविका रानी ने ग्रामीण हरिजन युवती कस्तूरी की भूमिका फिल्म अछूत कन्या में निभा कर सबको हतप्रभ कर दिया था. अशोक कुमार ने इसी फिल्म में अपना पहला गीत गाया था - मैं बन के पंछी, बन के संग संग डोलू रे...इस फिल्म की लोकप्रियता देखकर पंडित नेहरु भी स्वयं को रोक नहीं पाए थे. देविका रानी के तमाम पत्रों में एक दिन उनका भी पत्र पंहुच गया. देविका रानी स्वाभाविक रुप से आश्चर्य में पड़ गई. सरोजिनी नायडू पहले ही देविका के अभिनय की कायल हो चुकी थीं. अछूत कन्या का किरदार उन्हें पहले ही द्रवित कर चुका था. दरअसल पंडित नेहरु को फिल्म देखने के लिए उन्होंने ही प्रेरित किया था. तब पं. नेहरु ने सरदार वल्लभ भाई पटेल और आचार्य नरेंद्र देव के साथ 25 अगस्त 19&6 को रॉक्सी सिनेमा में यह फिल्म देखी थीं. कैरियर के सुनहरे दौर में देविका रानी ने तकरीबन जिन 15 फिल्मों में काम किया वे हैं - कर्मा, जवानी की हवा, जीवन प्रभात, हमारी बात, अछूत कन्या, ममता, निर्मला, दुर्गा, सावित्री, और अंजना. जयराज के साथ हमारी बात उनका अंतिम फिल्म थीं. 19 मई 1940 के दिन हताश और नर्वस ब्रेक डाऊन का शिकार बने हिमांशु राय चल बसे. इसके बाद देविका रानी ने अभिनय की तिलांजलि दे दी. उनकी कई यादगार भूमिकाओं में अछूत कन्या की हरिजन बाला, ब"ो को तरसती नि:संतान स्त्री के रुप में निर्मला, अनाथ युवती के रुप में दुर्गा, क्रांतिकारी नारी सावित्री और अति उ"ाकुल की पर बदनसीब ब्राह्मण कन्या जीवन प्रभात का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. पति के अवसान के बाद देविका रानी ने बॉम्बे टाकीज का कार्यभार सम्भाल लिया. उसी दरम्यान संस्था ने बंधन, पुनर्मिलन, झाूला, वसंत और कलकत्ता बंबई में 150 सप्ताह चलने वाली धूम फिल्म किस्मत का निर्माण किया.
एक समय लाखों युवा दिलों पर राज करने वाली विश्व सुंदरी और स्वप्न सुंदरी देविका रानी को फाइव स्टार होटलों में रहना पड़ा था. हमेशा कैमरा और स्पॉट लाईट के बीच रहने वालों को तन्हाई 'यादा सताती है. ऐसा ही अंत इस प्रतिभाशाली युगसृजक और अद्वितीय तारिका का भी हुआ.
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मेरे 'गेम' पर वर्ल्ड कप का असर नहीं : अभिषेक बच्चन

इंडिया में लोग अगर किसी चीज के दीवाने हैं तो वो हैं क्रिकेट, और इस समय हर किसी पर क्रिकेट की खुमारी चढ़ी हुई है। चारों तरफ अभी माहौल वर्ल्ड कप का ही है। शायद यही वजह है कि बॉलीवुड के निर्माताओं ने इस बीच किसी भी फिल्म को रिलीज करने की हिम्मत नहीं की। अब तक मार्च में केवल एक ही फिल्म रिलीज हुई.. ये फासले, जो कि एक छोटे बजट की फिल्म थी। सो, इसे दर्शक भी नहीं मिले। लेकिन अभिनव देव एक अप्रैल को अभिषेक बच्चन और सारा जेन अभिनीत फिल्म गेम लेकर आ रहे हैं। जबकि दो अप्रैल को वर्ल्ड कप का फाइनल मैच हैं। उल्लेखनीय यह है कि निर्देशक अभिनेव देव से अधिक अपनी फिल्म गेम पर अभिषेक बच्चन का आत्मविश्वास है। उन्होंने अपनी बातचीत के दौरान कहा कि भले ही वर्ल्ड कप हो, लेकिन दर्शकों को गेम जरूर पसंद आयेगी। चूंकि फिल्म में दर्शकों के मनोरंजन के लिए सबकुछ है, अपनी पिछली कई फिल्में फ्लॉप देने के बावजूद अभिषेक के इस आत्मविश्वास को उनका अत्यधिक आत्मविश्वास कहें या कुछ और। चूंकि यह अभिनेव देव की पहली फिल्म है, वे फिल्म को लेकर बेहद उत्साहित है, गौरतलब है कि अभिनव देव इससे पहले विज्ञापन जगत में काम कर चुके हैं। अभिषेक बच्चन ने फिल्म के म्यूजिक लांच के दौरान यह बात स्वीकारा कि यह सच है कि हमारे दर्शक क्रिकेटप्रेमी अधिक हैं, लेकिन लंबे अंतराल के बाद वह अच्छी फिल्म तो जरूर देखना चाहेंगे इसलिए गेम के हिट होने की पूरी गुंजाइश है। अभिषेक का कहना है कि फिल्म का नाम गेम ही उसे वर्ल्ड कप से जोड़ देगा। गेम की कहानी अलग है, बस अभी इतना ही कह सकता हूं, गौरतलब है कि इस फिल्म के निर्माता फरहान अख्तर और रितेश सिध्दवानी हैं।
regard to ravi

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