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शनिवार, 6 अगस्त 2011

महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर की ’निरुद्देश यात्रा’ से

महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर

मैं अपने से अनजानों को कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ ;
तुम इनको पढकर, मुझसे कुछ सा कुछ कुछ समझा देना ,
कुछ यहाँ का, कुछ वहाँ का, ले दे सा बिखरा दिखता हूँ;
तुम एक एक कर मुझसे मुझको निखरा सा सुलझा देना,
हे प्रिय तुमसे आशा है, शब्दों की सिमित भाषा है;
मुझसे अनजान बने रहना, पर मेरी जान बने रहना
न तुमसे कभी मिलना हो,न सुलगन हो न बिलखना हो
बस इसी अनजाने पन से तुम मुझको सब समझा देना

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’अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’--
कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो
प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश!
मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर,
फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत
सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर!

मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में
मैं विहार करता था,--
मेरा जीवन-श्रम हरता था;

मीठी थपकी क्षुब्ध हृदय में तान-तरंग लगाती
मुझे गोद पर ललित कल्पना की वह कभी झुलाती,
कभी जगाती;

जगकर पूछा, कहो कहाँ मैं आया?
हँसते हुए दूसरा ही गाना तब तुमने गाया!
भला बताओ क्यों केवल हँसती हो?--
क्यों गाती हो?
धीरे धीरे किस विदेश की ओर लिये जाती हो?
(२)
झाँका खिड़की खोल तुम्हारी छोटी सी नौका पर,
व्याकुल थीं निस्सीम सिन्धु की ताल-तरंगें
गीत तुम्हारा सुनकर;
विकल हॄदय यह हुआ और जब पूछा मैंने
पकड़ तुम्हारे स्त्रस्त वस्त्र का छोर,
मौन इशारा किया उठा कर उँगली तुमने
धँसते पश्चिम सान्ध्य गगन में पीत तपन की ओर।
क्या वही तुम्हारा देश
उर्मि-मुखर इस सागर के उस पार--
कनक-किरण से छाया अस्तांचल का पश्चिम द्वार?
बताओ--वही?--जहाँ सागर के उस श्मशान में
आदिकाल से लेकर प्रतिदिवसावसान में
जलती प्रखर दिवाकर की वह एक चिता है,
और उधर फिर क्या है?
झुलसाता जल तरल अनल,
गलकर गिरता सा अम्बरतल,
है प्लावित कर जग को असीम रोदन लहराता;
खड़ी दिग्वधू, नयनों में दुख की है गाथा;
प्रबल वायु भरती है एक अधीर श्वास,
है करता अनय प्रलय का सा भर जलोच्छ्वास,
यह चारों ओर घोर संशयमय क्या होता है?
क्यों सारा संसार आज इतना रोता है?
जहाँ हो गया इस रोदन का शेष,
क्यों सखि, क्या है वहीं तुम्हारा देश?++

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