कांग्रेस का हीरो नंबर वन
अपने जन्म का 125वां वर्ष मना रही कांग्रेस आधुनिक भारत की सबसे बड़ी, पुरानी, व्यापक और महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी है. पार्टी के झंडे तले भारत के करोड़ों लोगों ने बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ आज़ादी का विजय युद्ध लड़ा. लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गोपालकृष्ण गोखले, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, सरोजिनी नायडू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और न जाने कितने देशभक्त इस पार्टी के जरिए भारतीय स्वतंत्रता की चेतना के संवाहक रहे हैं.
देश में ऐसा कोई परिवार नहीं था, जिसका कोई न कोई सदस्य कांग्रेस का ध्वजवाहक नहीं रहा हो. आज भी विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में इस पार्टी का एक विशिष्ट जनाधार है. एक वक्त था जब कांग्रेसी कहलाना सम्मान की बात थी. कांग्रेस का कार्यकर्ता अपनी पार्टी के संविधान के अनुरूप खादी और मद्य निषेध का सक्रिय समर्थक हुआ करता था. कांग्रेस ने हिन्दुस्तान के अवाम की लड़ाई को लड़ने में अपने शुरुआती वर्षों में कोई कोताही या बेईमानी नहीं की. इस संस्था के शीर्ष नेता जवाहरलाल नेहरू महात्मा गांधी से ज़्यादा लोकतांत्रिक रहे हैं. नेहरू ने सरकार के मुखिया होते हुए भी संगठन के मामलों में मोटे तौर पर सरदार पटेल के आगे बार बार सिर झुकाया है. इसका उन्हें मलाल नहीं गौरव था. धीरे धीरे कांग्रेस के चरित्र में गिरावट आती गई. इंदिरा गांधी ने तो संगठन के संविधान को चुनौती देकर भी कांग्रेस के संघर्षशील चेहरे को तराशने का काम किया. राजीव गांधी कांग्रेस के शताब्दी समारोह में इतने क्षुब्ध हो गए थे कि उन्होंने पार्टी से सत्ता के दलालों को बाहर निकालने का खुला आह्वान किया था. सत्ता के दलाल तो हर पार्टी में दीमक और जोंक की तरह चिपके होते हैं. संघ परिवार और कम्युनिस्ट पार्टियां अनुशासनप्रिय होने का डंका पीटने के बाद भी सत्ता के दलालों से वंचित नहीं हैं.
इधर कांग्रेस में एक अनोखा फेनोमिना पहली बार पैदा हुआ है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी एक साथ सत्ता और संगठन के ताकतवर पायों की तरह गद्दीनशीन रहे हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार कांग्रेसी ही नहीं हैं. वे जननेता तो क्या राजनीतिक प्राणी भी नहीं हैं. विशेष राजनीतिक परिस्थितियों में बहुमत-समर्थित सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनना कुबूल नहीं किया. उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को पार्टी तक की राय के खिलाफ मनोनीत कर दिया. वे उसके बाद लोकसभा का एक चुनाव भी जीत नहीं पाए हैं.
अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें देश को संभालने का उत्तरदायित्व तो दिया गया. लेकिन उनकी अगुवाई में देश की अर्थव्यवस्था ही तहस नहस हो रही है. मंत्रिपरिषद में भी पारंपरिक कांग्रेसियों की संख्या बहुत घट गई है. सरकार और संगठन में बहुत से कुलीन चेहरे उच्च मध्यवर्ग के भद्रलोक के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस को एक जनाभिमुखी संगठन समझने के बदले एक मैनेजमेंट कंपनी के रूप में चलाना बेहतर जानते हैं. सामंतों, वकीलों, उद्योगपतियों, पूर्व नौकरशाहों और पराजित कांग्रेसियों के जमावड़े की सामूहिक बुद्धि इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस का राष्ट्रीय चेहरा तराश रही है.
इस नई राजनीतिक फिज़ा में कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह को बहुत बड़ा ‘स्पेस‘ मिल गया है. दिग्विजय संगठन से जुड़े जुझारू नेता रहे हैं. उन्हें दस वर्षों के लिए देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री होने का सुयोग भी मिला है. दिग्विजय चपल गति, कूटनीतिक मुस्कराहट और विरोधाभासी बयानों की प्रसिद्धि भी रखते हैं. कांग्रेस के कुछ पुराने शीर्ष नेताओं के राजनीति या जीवन के परिदृश्यों से हट जाने के बाद दिग्विजय के लिए कांग्रेस एक खुला आसमान है. वे लगातार वक्तव्य दे रहे हैं. राजनीतिक संघर्षों के केन्द्र में आ रहे हैं. दक्षिणपंथ की विचारधारा को समूची कांग्रेस में वे अकेले ही अल्पसंख्यक नेताओं से भी ज़्यादा चुनौतियां बिखेर रहे हैं.
आजमगढ़ जाकर मुस्लिम वोट बैंक पर नज़र रखते दिग्विजय ने अल्पसंख्यक अभियुक्तों की जन अदालत में पैरवी शुरू की. उन्होंने कथित भगवा आतंकवाद‘की अभिव्यक्ति की घुट्टी देश को पिलाई. स्वामी रामदेव के पीछे पड़कर दिग्विजय ने इतना सफल कूटनीतिक जाल बुना कि बाबा रामदेव का मौन व्रत शुरू हो गया. दिग्विजय के फिलवक्त निशाने पर सीधे साधे गांधीवादी अन्ना हज़ारे हैं. सुप्रीम कोर्ट में रामदेव समर्थकों पर पुलिसिया हमले के मामले के न्यायाधीश होने पर भी दिग्विजय अन्ना हज़ारे को भी ऐसी ही कार्यवाही का संकेत देकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को नेपथ्य में भेज सकते हैं. ज़रूरत पड़ने पर वे स्थानीय स्तर के शंकराचार्यों के चरण स्पर्श भी कर सकते हैं.
कांग्रेस में यह कभी नहीं हुआ कि पार्टी लाइन से अलग हटकर या सलाह किए बिना कोई नेता ऐसे भी बयान दे जिसे पार्टी के भी खिलाफ समझा जाए. लेकिन केवल दिग्विजय सिंह को यह शोहरत, महारत और दस जनपथीय प्रतिरक्षा हासिल है. उनके बयान पर कांग्रेस के अधिकारिक प्रवक्ता भी टिप्पणी करने से कतराते हैं. दिग्विजय जन लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री को शामिल करने की खुली राय व्यक्त करते हैं. जबकि केन्द्र सरकार इस सुझाव के विरोध में है. दिग्विजय राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश करते हैं और फिर सावधानी से पूरा मामला राहुल गांधी पर छोड़ देते हैं. उन्हें पार्टी मुख्यालय से कोई कुछ नहीं कहता.
रामदेव से पूरी कांग्रेस के किनाराकशी करने के अधिकारिक फैसले के पीछे दिग्विजय का ही दिमाग होगा. दिग्विजय भविष्यवाणी करते हैं कि कोई बाबा रामदेव को अनशन तोड़ने के लिए मनाने नहीं जाएगा और वाकई कोई नहीं जाता. वे स्वामी रामदेव की संपत्तियों को राजसात करने की भविष्यवाणी भी करते हैं. नृत्य और सौंदर्य के पारखी दिग्विजय कांग्रेस नेताओं में अकेले हैं जिन्होंने सुषमा स्वराज को राजघाट पर ठुमके लगाने के लिए आड़े हाथों लिया.
जन लोकपाल विधेयक बनाने वाली सिविल सोसायटी के सदस्यों के विरुद्ध भी दिग्विजय गड़े मुर्दे उखाड़कर ले आते हैं. पार्टी में कोई उनसे चू चपड़ करने की हिम्मत नहीं रखता. दिग्विजय ने ही प्रणव मुखर्जी के पास जाकर यह विरोध भी दर्ज कराया था कि स्वामी रामदेव की अगवानी के लिए चार मंत्रियों को हवाई अड्डे जाने की क्या ज़रूरत थी. उसके बाद मंत्रियों की टीम ने यू टर्न ले लिया.
उत्तरप्रदेश में फिलवक्त दिग्विजय सिंह कांग्रेस की ताजपोशी के लिए दिन रात एक किए पड़े हैं. उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी नेता इस ध्रुव तारे के सप्तर्षि बने हुए हैं. उनका मुकाबला उनकी पूर्व विरोधी तेज़ तर्रार भाजपा नेता उमा भारती और उत्तरप्रदेश की दमदार बसपा मुख्यमंत्री मायावती के अतिरिक्त सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से भी है. दिग्विजय उत्तरप्रदेश में राहुल करिश्मा पैदा करने की परियोजना के निदेशक भी हैं. मुसलमान वोटों को जो कबाड़ेगा, सरकार उसी की बन सकती है. यही तो जिन्ना ने भी चाहा था.
सत्ता और संगठन के शीर्ष नेता मीडिया-उछाल में दिग्विजय को कांग्रेस का हीरो नंबर वन बनाए पड़े हैं. कोई नहीं जानता कि दिग्विजय कब कौन सा बयान देंगे और उसमें कैसे संशोधन करेंगे. उनके चपल तेवरों के चलते राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ उन पर ही निर्भर होता भी दिखाई पड़ता है. दिग्विजय ने कांग्रेस महासचिव के रूप में वह मुकाम हासिल कर लिया है जो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहते भी उन्हें नसीब नहीं हुआ था. धीरे धीरे एक राष्ट्रीय नेता के रूप में परिवर्तित होते दिग्विजय सिंह उस क्षण भी अवतरित हो जाने की तकनीक रखते हैं जब पार्टी के एक और महासचिव जर्नादन द्विवेदी से कथित पत्रकार हाथ में जूता लिए बदतमीजी कर रहा हो. उस क्षण भी दिग्विजय केवल मूक दर्शक नहीं रहते.
कांग्रेस पार्टी में राजीव गांधी ने मध्यप्रदेश के ही अर्जुन सिंह को पहली बार सृजित उपाध्यक्ष पद से नवाज़ा था. दिग्विजय के लिए पार्टी संविधान में सशोधन की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी. उन्होंने महासचिव के पद को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि कई मुद्दों पर मीडिया भी शीर्ष नेतृत्व के बदले दिग्विजय से ही गुफ्तगू कर उसे कांग्रेस का अधिकारिक बयान मान लेने में भलाई समझता है. वे मुस्कराते हैं तो गालों में डिम्पल पड़ते हैं. ठहाका लगाते हैं तो श्रोता घबराने लगता है. कांग्रेस में कई प्रवक्ता होंगे लेकिन दिग्विजय कांग्रेस के भविष्यवक्ता की शक्ल धारण कर रहे हैं.
इधर कांग्रेस में एक अनोखा फेनोमिना पहली बार पैदा हुआ है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी एक साथ सत्ता और संगठन के ताकतवर पायों की तरह गद्दीनशीन रहे हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार कांग्रेसी ही नहीं हैं. वे जननेता तो क्या राजनीतिक प्राणी भी नहीं हैं. विशेष राजनीतिक परिस्थितियों में बहुमत-समर्थित सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनना कुबूल नहीं किया. उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को पार्टी तक की राय के खिलाफ मनोनीत कर दिया. वे उसके बाद लोकसभा का एक चुनाव भी जीत नहीं पाए हैं.
अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें देश को संभालने का उत्तरदायित्व तो दिया गया. लेकिन उनकी अगुवाई में देश की अर्थव्यवस्था ही तहस नहस हो रही है. मंत्रिपरिषद में भी पारंपरिक कांग्रेसियों की संख्या बहुत घट गई है. सरकार और संगठन में बहुत से कुलीन चेहरे उच्च मध्यवर्ग के भद्रलोक के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस को एक जनाभिमुखी संगठन समझने के बदले एक मैनेजमेंट कंपनी के रूप में चलाना बेहतर जानते हैं. सामंतों, वकीलों, उद्योगपतियों, पूर्व नौकरशाहों और पराजित कांग्रेसियों के जमावड़े की सामूहिक बुद्धि इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस का राष्ट्रीय चेहरा तराश रही है.
इस नई राजनीतिक फिज़ा में कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह को बहुत बड़ा ‘स्पेस‘ मिल गया है. दिग्विजय संगठन से जुड़े जुझारू नेता रहे हैं. उन्हें दस वर्षों के लिए देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री होने का सुयोग भी मिला है. दिग्विजय चपल गति, कूटनीतिक मुस्कराहट और विरोधाभासी बयानों की प्रसिद्धि भी रखते हैं. कांग्रेस के कुछ पुराने शीर्ष नेताओं के राजनीति या जीवन के परिदृश्यों से हट जाने के बाद दिग्विजय के लिए कांग्रेस एक खुला आसमान है. वे लगातार वक्तव्य दे रहे हैं. राजनीतिक संघर्षों के केन्द्र में आ रहे हैं. दक्षिणपंथ की विचारधारा को समूची कांग्रेस में वे अकेले ही अल्पसंख्यक नेताओं से भी ज़्यादा चुनौतियां बिखेर रहे हैं.
आजमगढ़ जाकर मुस्लिम वोट बैंक पर नज़र रखते दिग्विजय ने अल्पसंख्यक अभियुक्तों की जन अदालत में पैरवी शुरू की. उन्होंने कथित भगवा आतंकवाद‘की अभिव्यक्ति की घुट्टी देश को पिलाई. स्वामी रामदेव के पीछे पड़कर दिग्विजय ने इतना सफल कूटनीतिक जाल बुना कि बाबा रामदेव का मौन व्रत शुरू हो गया. दिग्विजय के फिलवक्त निशाने पर सीधे साधे गांधीवादी अन्ना हज़ारे हैं. सुप्रीम कोर्ट में रामदेव समर्थकों पर पुलिसिया हमले के मामले के न्यायाधीश होने पर भी दिग्विजय अन्ना हज़ारे को भी ऐसी ही कार्यवाही का संकेत देकर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को नेपथ्य में भेज सकते हैं. ज़रूरत पड़ने पर वे स्थानीय स्तर के शंकराचार्यों के चरण स्पर्श भी कर सकते हैं.
कांग्रेस में यह कभी नहीं हुआ कि पार्टी लाइन से अलग हटकर या सलाह किए बिना कोई नेता ऐसे भी बयान दे जिसे पार्टी के भी खिलाफ समझा जाए. लेकिन केवल दिग्विजय सिंह को यह शोहरत, महारत और दस जनपथीय प्रतिरक्षा हासिल है. उनके बयान पर कांग्रेस के अधिकारिक प्रवक्ता भी टिप्पणी करने से कतराते हैं. दिग्विजय जन लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री को शामिल करने की खुली राय व्यक्त करते हैं. जबकि केन्द्र सरकार इस सुझाव के विरोध में है. दिग्विजय राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश करते हैं और फिर सावधानी से पूरा मामला राहुल गांधी पर छोड़ देते हैं. उन्हें पार्टी मुख्यालय से कोई कुछ नहीं कहता.
रामदेव से पूरी कांग्रेस के किनाराकशी करने के अधिकारिक फैसले के पीछे दिग्विजय का ही दिमाग होगा. दिग्विजय भविष्यवाणी करते हैं कि कोई बाबा रामदेव को अनशन तोड़ने के लिए मनाने नहीं जाएगा और वाकई कोई नहीं जाता. वे स्वामी रामदेव की संपत्तियों को राजसात करने की भविष्यवाणी भी करते हैं. नृत्य और सौंदर्य के पारखी दिग्विजय कांग्रेस नेताओं में अकेले हैं जिन्होंने सुषमा स्वराज को राजघाट पर ठुमके लगाने के लिए आड़े हाथों लिया.
जन लोकपाल विधेयक बनाने वाली सिविल सोसायटी के सदस्यों के विरुद्ध भी दिग्विजय गड़े मुर्दे उखाड़कर ले आते हैं. पार्टी में कोई उनसे चू चपड़ करने की हिम्मत नहीं रखता. दिग्विजय ने ही प्रणव मुखर्जी के पास जाकर यह विरोध भी दर्ज कराया था कि स्वामी रामदेव की अगवानी के लिए चार मंत्रियों को हवाई अड्डे जाने की क्या ज़रूरत थी. उसके बाद मंत्रियों की टीम ने यू टर्न ले लिया.
उत्तरप्रदेश में फिलवक्त दिग्विजय सिंह कांग्रेस की ताजपोशी के लिए दिन रात एक किए पड़े हैं. उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी नेता इस ध्रुव तारे के सप्तर्षि बने हुए हैं. उनका मुकाबला उनकी पूर्व विरोधी तेज़ तर्रार भाजपा नेता उमा भारती और उत्तरप्रदेश की दमदार बसपा मुख्यमंत्री मायावती के अतिरिक्त सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से भी है. दिग्विजय उत्तरप्रदेश में राहुल करिश्मा पैदा करने की परियोजना के निदेशक भी हैं. मुसलमान वोटों को जो कबाड़ेगा, सरकार उसी की बन सकती है. यही तो जिन्ना ने भी चाहा था.
सत्ता और संगठन के शीर्ष नेता मीडिया-उछाल में दिग्विजय को कांग्रेस का हीरो नंबर वन बनाए पड़े हैं. कोई नहीं जानता कि दिग्विजय कब कौन सा बयान देंगे और उसमें कैसे संशोधन करेंगे. उनके चपल तेवरों के चलते राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ उन पर ही निर्भर होता भी दिखाई पड़ता है. दिग्विजय ने कांग्रेस महासचिव के रूप में वह मुकाम हासिल कर लिया है जो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहते भी उन्हें नसीब नहीं हुआ था. धीरे धीरे एक राष्ट्रीय नेता के रूप में परिवर्तित होते दिग्विजय सिंह उस क्षण भी अवतरित हो जाने की तकनीक रखते हैं जब पार्टी के एक और महासचिव जर्नादन द्विवेदी से कथित पत्रकार हाथ में जूता लिए बदतमीजी कर रहा हो. उस क्षण भी दिग्विजय केवल मूक दर्शक नहीं रहते.
कांग्रेस पार्टी में राजीव गांधी ने मध्यप्रदेश के ही अर्जुन सिंह को पहली बार सृजित उपाध्यक्ष पद से नवाज़ा था. दिग्विजय के लिए पार्टी संविधान में सशोधन की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी. उन्होंने महासचिव के पद को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि कई मुद्दों पर मीडिया भी शीर्ष नेतृत्व के बदले दिग्विजय से ही गुफ्तगू कर उसे कांग्रेस का अधिकारिक बयान मान लेने में भलाई समझता है. वे मुस्कराते हैं तो गालों में डिम्पल पड़ते हैं. ठहाका लगाते हैं तो श्रोता घबराने लगता है. कांग्रेस में कई प्रवक्ता होंगे लेकिन दिग्विजय कांग्रेस के भविष्यवक्ता की शक्ल धारण कर रहे हैं.
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