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सोमवार, 4 जुलाई 2011

ताशमहल

गुसलखाने से तौलिया लपेटे हुए निकलते निशीथ को उसने कुछ झिझकते हुए रोक लिया, ‘‘सुनो!’’ पायदान पर गीले पाँव रगड़ते हुए निशीथ ने प्रश्न भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा।
‘‘मेरा मतलब है...’’
"तुम्हारा मतलब है, मैं आज छुट्टी ले लूँ?’’
उसका परेशान चेहरा हिला।
‘‘छुट्टी बकाया है?’’ व्यस्त भाव से उसने सिर के गीले बालों को दोनों हाथों की उँगलियों से झटकते हुए कदम बढ़ा दिए। वह एकदम सामने आ गई। तय करना जरूरी है। वह नहीं रुक सकती। आज से उसकी ‘एजुकेशन फार वीमन्स इक्वलिटी’ पर कार्यशाला शुरू हो रही है। तीस से पाँच तक चलेगी। तीन महीने से वह इसी कार्यशाला की योजना को कार्यान्वित कर पाने के लिए विभाग से लिखा-पढ़ी कर रही थी। बजट पास करवाया। संभावित विशेषज्ञों की सूची तैयार की। आमंत्रण भिजवाए। हैदराबाद, कलकत्ता, बंबई, मद्रास...कहाँ-कहाँ से लोग आ चुके होंगे। वह नहीं पहुँचेगी तो किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। वीमेन स्टडीज यूनिट की प्रमुख प्रो. डॉ. मिस कथूरिया एक अन्य कार्यशाला के सिलसिले में मिजोरम गई हुई हैं। आज शुरू हो रही कार्यशाला की पूरी जिम्मेदारी उसके कंधों पर है। क्या पता था कि ऐन मौके पर बच्चू की बीमारी गंभीर रूप धारण कर लेगी और पिछले दो हफ्तों से चढ़-उतर रहा उसका बुखार वायरल नहीं, टाइफाइड सिद्ध होगा। सुबह थर्मामीटर लगाया तो बुखार एक सौ चार पाया। दूध देने पर सारा दूध पलक झपकते उसने नाक-मुँह से भलभलाकर उलट दिया। होंठ बजबजा आए। आँखें डूबने लगीं। उसका कलेजा मुँह को आ गया। दौड़कर डॉ. श्रीवास्तव का नंबर मिलाया। वे अपने नर्सिंग होम के लिए निकल रहे थे। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि बच्चे को वह अविलंब नर्सिंग होम में दाखिल करा दें। केस बिगड़ गया है। बच्चा रक्ताल्पता से पीड़ित तो है ही, हो सकता है ग्लूकोज आदि चढ़ाना पड़े। उसने कंपित शब्दों में अपनी मजबूरी बयान की कि क्या शाम को कार्यशाला से लौटकर वह बच्चू को नर्सिंग होम में दाखिल नहीं करा सकती? ‘नहीं’ कहकर डॉक्टर श्रीवास्तव ने लाइन काट दी। दुबारा नंबर मिलाने और पूछने का साहस नहीं हुआ। डॉ. श्रीवास्तव की हड़बड़ाहट से स्पष्ट जाहिर हो रहा था कि वे बेहद जल्दी में हैं और फोन रखते ही घर की सीढ़ियाँ उतर गाड़ी में बैठ गए होंगे।
‘‘सब पैसा बनाने के चक्कर हैं...नर्सिंग होम में ले आइए।’’ टांगें फैलाकर पैंट की जिप चढ़ाते हुए निशीथ ने घृणा से मुँह बिराया, ‘‘टाइफाइड है, कैंसर नहीं! मर नहीं जाएगा बच्चू। सुबह से घर को सिर पर उठा रखा है-उपर से ये डॉक्टर, जेबकतरे हैं साले, जेबकतरे!’’ टी-शर्ट का हैंगर बिस्तर पर फेंकते हुए वह बाँहें फँसाते हुए टी-शर्ट पहनने लगा। एकदम निर्लिप्त, ‘‘दाखिल-वाखिल करने की मूर्खता छोड़ी...लंच के बाद घर आ जाओ बस, तब तक अम्मा देख लेंगी उसे...बत्तरा मामूली डॉक्टर नहीं, उसकी दी हुई खुराकें तो पूरी होने दो!’’
‘‘तो तुम उसे नर्सिंग होम नहीं ले जा सकते?’’
‘‘एक तो मैं डॉ. श्रीवास्तव की सलाह उचित नहीं समझता... और अगर तुम्हारी जिद ही हो तो गुंजाइश नहीं...’’
इससे अधिक गिड़गिड़ाना उसके वश का नहीं। समय भी नहीं है। मदर डेरी के बूथ के सामने से ठीक आठ-बीस पर उसकी चार्टर्ड बस छूट जाती है। उसके बाद साढ़े-आठ की तीन सौ चवालीस स्पेशल निकलती है, जो ठीक रा.शै.अ.प्र.प. के गेट नं. दो पर खत्म होती है। गेट नं. दो से उसका कार्यालय यही कोई आधा फर्लांग होगा। बस भी छूट गई तो मुसीबत ही समझो। पहुँचने के लिए कोई सीधी बस नहीं है। मेडिकल पहुँचकर बस बदलो या फिर स्कूटर-टैक्सी का सहारा लो। व्यर्थ ही उसके आगे-पीछे मंडराती रही। स्वयं तैयार होना है। संग ले जानेवाले पूरे कागजात सहेजने हैं। आधे-घंटे के अंतराल में बच्चू को दो अन्य दवाइयाँ पिलानी थीं, पिलाना ही भूल गई। दूध उलटकर कैसा निष्प्राण हो आया है! हफ्तों से न सिंचे पौधे की भाँति। किसी सहयोगी को फोन भी नहीं कर सकती कि ऐसी स्थिति में वे ही सुझाएँ कि वह क्या करे? निकल चुके होंगे घर से सब...
‘‘टाइफाइड है कैंसर नहीं, मर नहीं जाएगा बच्चू!’’ लगा था किसी ने पहाड़ की चोटी पर चढ़ाकर अचानक पीठ पीछे से धक्का दे दिया हो। निशीथ दिन-प्रतिदिन काठ क्यों होता जा रहा है? किसी सूखे तने-सा काठ! जिसकी छाती में खुदे कोटर में निवास करते पक्षियों सदृश वे। कोई सरोकार नहीं उन रहनेवालों के संग उसका। क्या हुआ उनके दरमियान कि एकाएक निशीथ काठ होने लगा और वे कोटर के आश्रयी पक्षी। बदहवास हो घबराकर कितनी जोर से चीखी थी। जब तक बच्चू को गोद में उठाकर पलंग की पाटी से उसे नीचे झुकाए तड़पकर उसने नाक और मुँह से भल-भलकर दूध नहीं, आँतें उगल दी थीं बिस्तर पर। कोई समय था, बच्चे पर बिगड़ने का? खटिया लगते बड़ों-बड़ों की हिम्मत पस्त हो जाती है। बिस्तर पर ही खाना-पाखाना होने लगाता है। फिर वह तो चार फुट की नन्हीं काया है। कहीं गाँव-जवार में होता तो अब तक कनिया लदा बछेड़-सा माँ के आँचल में मुँह मारता रहता...
कलाई मोड़कर सुइयों पर निगाह डाली। मस्तिष्क को अचानक बिजली का-सा झटका लगा। चार्टर्ड गई। भले सीढ़ियाँ उतरते ही उसे रिक्शा खड़ा मिल जाए तब भी वह मदर डेरी के बूथ तक नहीं पहुँच सकती और बस नहीं पकड़ सकती। डी.टी.सी. स्पेशल का ही आसरा शेष है। कंधे पर मूँगा कोटा के पल्लू की चुन्नटों को ब्लाउज के भीतर से पिन लगाते हुए वह हड़बाई हुई-सी अम्माजी के निकट जा खड़ी हुई। बोलते हुए चेहरा दयनीय हो आया।
‘‘आप कहें तो रोनू को क्रैच में छोड़ती हुई जाऊँ!’’
‘‘काहे?’’ अम्मा के माथे की सांवली झुरियाँ गहरी सलवटों में परिवर्तित हो चौड़ाती झड़ी माँग से जा जुड़ीं, ‘‘हम नहीं हैं घर में...?’’
‘‘दोनों को सँभालने में दिक्कत नहीं होगी आपको?’’
‘‘जरूर होगी...तुम बच्चू को नर्सिंग होम में दाखिल नहीं कराय रहीं?’’
उनका आशय तमाचे-सा लगा गाल पर।
’’छुट्टी नहीं ले सकती...’’ उसे लगा, आगे शब्द नहीं, अचानक रुआँस झड़ पड़ेगी होंठों से। बीच-बीच में छुट्टी लेती रही। ले सकती थी, नहीं ले पा रही तो कोई बच्चू की जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं। दो हफ्ते से बिस्तर पर पड़ा है बच्चा, किसी रोज दिक्कत हुई क्या? कोई तकलीफ दी उन्हें बच्चू ने? उठ पाता है तो अपने आप निर्देशानुसार दवा खा लेता है। दुध ले लेता है। बच्चू से लगाव नहीं है, न सही। लेकिन सामान्य दया-माया पाने का भी अधिकारी नहीं है वह। सुबह से मात्र मूकदर्शक की भाँति बैठी देख रही है, बच्चू की बिगड़ती हालत। न खुद पूछा-पाछी की, न निशीथ को ही टोका कि एक दिन दफ्तर न जाने से पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा सिर पर। कैजुअल पूरी की पूरी बकाया है उसकी, अच्छी तरह जानती है। घड़ी की सुइयाँ दौड़ रही हैं। उनके मुँह लगना ठीक नहीं। सुबह से झाँय-झाँय हो रही है। पता नहीं, कार्यशाला में क्या कर पाएगी...
बच्चू के सिरहाने रखी मेज पर से दवाइयों की दो पुड़िया बना लाई और अम्मा जी के सामने खोलकर समझाने लगी, ‘‘आधे घंटे बाद ये पीली गोली और ये हरा-सफेद कैपसूल दे दीजिएगा, पानी के साथ। दोपहर में ये तीनों सफेद ...उलटी की शिकायत करें तो ये छोटी सफेद...’’ उल्टी की बात सुनते ही अम्मा के चेहरे पर घिन क्रौंधी। रोनू दाँत निकाल रहा है। दस्त भी लग जाते हैं उसे और दूध भी उलट देता है अक्सर। उसकी उल्टी-टट्टी साफ करते अम्मा के चेहरे पर रत्ती-भर भी घिन नहीं झलकती। चिंता टपकती रहती है प्रतिपल। हरड़-बहेरा चटाने से लेकर राई-नोन उतार टोना-टटका फूँकती रहती है उस पर। जिस दिन रोनू के जन्म लेने की सूचना पहुँची उनके पास, कभी उनकी देहरी पर पाँव न धरने की उनकी कसम अचानक टूट गई। रोनू को छाती से चिपकाए उस पर बलिहारी होती रहती वे। प्रत्येक आने-जाने वाले के समक्ष बड़बड़ाती रहीं कि मूल से ब्याज प्यारा होता है। कैसे हठ धरे रहतीं? उसके साथ निशीथ के ब्याह के निर्णय को अम्मा पचा नहीं पाई थीं। कसम खा ली थी उन्होंने कि वैधव्य के शेष दिन वे आगरे जाकर अपने राधा स्वामी सत्संगियों के बीच काट देंगी। तीन-साल से अम्मा वहीं थीं। जबसे आई हैं रोनू को क्रैच में नहीं छोड़ने देती। बड़े मनोयोग से सुबह-शाम कड़वे तेल से उसकी मालिश करती हैं। चिरौंजी का उबटन मलती हैं। मैल की बत्तियाँ दिखाकर निशीथ को उसकी लापरवाही का उलाहना देती हैं, ‘‘ऐसे पलते हैं बच्चे! दूध के दाँत निकले नहीं और डिब्बे का दुध! छाती सुखाने की क्या जरूरत थी? ऐसी कौन-सी कलेक्टरी चली जाती मगर अगर नौकरी छोड़ देती बहू?’’
कंधे पर बैग डालकर गोद में फाइलों का पुलिंदा सहेजती हुई वह बच्चू के ऊपर झुकी, ‘‘दादी को दिक् नहीं करना!’’
कठिनाई से आँखें खोलते हुए बच्चू ने निष्प्रभ दृस्टि से उसे देखकर अनुमोदन में ठुड्डी हिलाई।
वह तेजी से कमरे से निकलकर दालान पार करती हुई घर से बाहर हो गई। रोनू को प्यार करना भूल ही गई। अम्मा को बच्चू की दवाइयों की खुराक समझाने गई तो कैसे उसकी ओर टूटकर कूदा पड़ रहा था उनकी गोद से...
बस के पायदान पर पाँव रखते ही बस रेंगने लगी। जान में जान आई। बस छूटती देख रिक्शेवाले से अठन्नी वापस नहीं ले पाई। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के निकट पहुँचते ही एक सीट पर बैठी दो महिलाओं ने उसके टिकने के लिए जगह बनाई। कृतज्ञता ज्ञापित करती वह सीट पर बैठ गई। फाइलों का ढेर खिड़की से सटी बैठी हुई महिला ने अपनी गोद में रख लिया। पहले ठिक नहीं थी! अकेली? अकेली कहाँ, बच्चू था साथ। सुकुमारी काकी थीं, जो कार्यालय से उसके घर में पाँव देते ही अपना झोला लटका घर और बच्चू की जिम्मेदारी उसके हवाले कर अपने घर चल देतीं। अनुशासित दिनचर्या, कोई बाधा-व्यवधान नहीं। कभी सुकुमारी काकी की रीढ़ की हड्डी की टीसें उन्हें खटिया से लगने को मजबूर कर देतीं तो वह और बच्चू आपस में जिम्मेदारी बाँट, एक मौन समझौते के तहत जीने लगते। बच्चू पड़ोस की सुलभा आंटी से चाभी लेकर ताला खोलता। मेज पर रखा खाना खाता। खाने के बाद सुलभा आंटी से बाहर ताला डलवा चाभी अपने पास रखने को कहकर सो जाता। कई दफे तो वह उसके कार्यालय से लौटकर आने तक सोता ही रहता। किंतु अक्सर बच्चू उसके घर पहुँचने से पूर्व उठकर अपना गृहकार्य निपटाकर कमरे की खिड़की पर बैठा उसके आने की प्रतीक्षा करता मिलता। उसे देखते ही खिड़की से दरवाजे पर आ हर्षित हो कूदने लगता, ‘‘ममा आ गई। आ गई। आ गई।’’ किवाड़ खोलते ही उचककर वह उसके गले में झूल जाता और पाँव उचकाए हुए ही बिस्तर तक लटका चला आता। उन दोनों के बीच दूर-दूर तक कोई नहीं था...
निशीथ से उसने स्पष्ट कहा था कि वह अपने और बच्चू के बीच किसी अन्य की गुंजाइश कतई नहीं पाती। उसके सामने एक संकल्प है। उदेश्य है। सार्थकता भी। देह की मांग इन सबके बीच स्वतः खो गई है। उठती ही नहीं।
‘‘यह साधना है...स्वाभाविकता से काटकर।’’
‘‘गलत...न साधने की आवश्यकता रह गई है, न काटने का प्रयत्न...देह अपनी सीमाओं के प्रति समझदार नहीं साझीदार भी है...’’
‘‘मैं इसे दमन कहूँगा...’’
‘‘तुम मुझे जीने की परिभाषा नहीं दे सकते...’’
‘‘यह तुम्हारी ज्यादती है...तुम मेरी ओर देखना नहीं चाहती...’’
‘‘मेरे लिए इन बातों का अब कोई महत्व नहीं रहा...’’
‘यह’ उसके सामने निशीथ ने एक छोटी-सी काली डायरी हौले से सरका दी थी।
‘‘क्या है, यह?’’
‘‘खुद ही देख लो।’’
‘‘मगर क्यूँ?’’
‘‘मुझे जानने के लिए...’’
‘‘तुम्हें जानती नहीं...?’’
‘‘वह मैं नहीं हूँ...।’’
‘‘अगर तुम वह नहीं हो तो तुम्हारे कुछ और होने को जानना मेरे लिए आवश्यक नहीं...’’ ‘‘शायद...लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे कुछ और होने को भी जानो शुभू।’’
‘‘किसी की डायरी पढ़ना अपराध है, निशीथ।’’
‘‘तब नहीं, तब कोई स्वयं उसे पढ़वाना चाहे।’’
उसके भीतर गाढ़ा होता असमंज मेज पर रखी कॉफी के प्याले की सतह पर साढ़ी-सा जमने लगा। झट से साढ़ी हटाकर उसने कॉफी का घूँट भरना चाहा। भर नहीं सकी। दस-पंद्रह मिनट पूर्व आई कॉफी का स्वाद ऐसा लग रहा है, जैसे पिछले दिन कोई कॉफी बनाकर अपना प्याला पीना भूल गया हो और वही प्याला किसी ने फिर उसके सामने लाकर रख दिया हो। झुटपुटा उसके भीतर उतरने लगा। उठना चाहिए। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सामने से स्कूटर नहीं मिलता। खान मार्किट तक पैदल जाना होगा। बच्चू चिंतित हो रहा होगा कि घंटे-डेढ देरी से पहुँचने की खबर करके ममा अब तक घर क्यों नहीं पहुँची।
‘‘उठे...?’’
अपने में डूबे निशीथ ने चौंककर उसकी ओर देखा, ‘‘एक-एक कॉफी और पीयें...’’
वह उठ दी, ‘‘पहली ही नहीं पी सकी...’’
‘‘क्यों... ठीक नहीं?’’
‘‘इच्छा नहीं हो रही।’’ वह उठते ही कुर्सी खिसकाकर मुड़ दी। उसकी पीठ ने महसूस किया, मेज पर से डायरी उठाते हुए निशीथ ने याचना भरी दृष्टि से उसे देखा। फिर खामोशी से पीछे हो लिया।
गेट से निकलते ही संयोग से एक खाली स्कूटर आता हुआ दिखाई दिया। भीतर पाँव रखते हुए उसने चेहरे पर स्थायी हो आई अलिप्तता को तनिक झटकने की कोशिश की। इतना आशालीन होना उचित नहीं। ‘‘कॉफी के लिए धन्यवाद! निशीथ।’’
निशीथ के उदास चेहरे पर सघन होती संध्या की कालिख गहरा आई, ‘‘मैं अब भी डायरी पढ़वाना चाहता हूँ...’’
वह कहना चाहती थी, इसके लिए तुम मुझे क्षमा कर देना निशीथ! लेकिन उसके डायरी लिए तेजी से आगे बढ़ आए हाथ की किलकन उससे दुरियाई नहीं गई।
रात बिस्तर पर डायरी के पृष्ठ करवटें भरने लगे...
‘‘दिवाकर को चुनकर तुमने मेरे सामने एक फैसला रख दिया था और अपनी भावनाओं को अप्रकट रहने देकर मैंने उसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था। अब दिवाकर तुम्हारे जीवन से अलग हो चुका है...मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तुम्हारे इर्द-गिर्द बने रहने का बरसों पुराना संतोष अब अचानक अपनी नियति से विद्रोह करने लगा है...’’
‘‘व्यक्ति व्यक्ति से अलग होता है...मैं तुम्हें अब भी...तुम्हारे लिए सही मायनों में साथी होना चाहता हूँ, शुभू! बच्चू के लिए सचमुच पिता। तुम पाओगी, मैं जो कुछ कह रहा हूँ, मात्र मेरा सोचना-भर ही नहीं है, न कोरी भावुकता की उड़ान। यह जीवन के हर पक्ष में भागीदारी का ऐलान है...बच्चू तुम्हारे प्राणों का स्पंदन ही नहीं है, वह मेरे ह्दय में भी संचरित हो रहा है...’’
डायरी के पृष्ठों ने उसे उद्वेलित कर दिया। महीनों वे पृष्ठ किसी के हाथ में बंधक कबूतर से इर्द-गिर्द फड़फड़ाते रहे...पीड़ा के खाँचे नहीं होते!
‘‘मेरी एक शर्त है...’’ वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के उसी पिछवाड़े वाले लॉन में बैठे हुए थे। ‘‘मुझे मंजूर होगी...’’
‘‘बच्चू के अलावा मैं कोई दूसरा बच्चा नहीं चाहूँगी...’’
निशीथ को निर्णय करने में पल-भर भी नहीं लगा, ‘‘मंजूर...लेकिन क्यों?’’
‘‘विभाजित माँ डायन होती है...’’
असावधानीवश रोनू रह गया। वह निश्चिंत थी कि गर्भपात करवा लेगी। निशीथ ने पहले तो हाँ कर दी मगर डॉ. कोटवानी से गर्भपात की तारीख निश्चय करने के समय एकाएक उसका ह्दय डाँवाडोल होने लगा। उससे रहा नहीं गया। डॉ. कोटवानी के सामने ही वह उससे जिद करने लगा कि वह अपने निर्णय पर एक बार फिर से सोच ले। गर्भ रह ही गया है तो बच्चा होने देने में हर्ज ही क्या है? अपनी जिद के पक्ष में उसका तर्क था, ‘‘क्या हम अपनी मान्यताओं को बच्चू के ऊपर जबरन थोपकर बच्चू के संग ज्यादती नहीं कर रहे? बड़े होकर उसे अकेलापन अनुभव हो सकता है। बड़े होकर क्या, अभी नहीं लगता होगा? एक और बच्चे के आ जाने से बच्चू कितना खुश होगा? और अगर कहीं बहन आ जाए तो इस घर में लड़की की कमी भी पूरी हो जाएगी...’’
‘‘...वह शर्त और कुछ नहीं, तुम्हारे ह्दय में पंजे गड़ाए बैठी असुरक्षा की वह भावना थी, जो तुम्हें आशंकित किए हुए थी कि कहीं ऐसा न हो कि हमारा वात्सल्य बँट जाए। लेकिन क्या तुम्हें बच्चू के प्रति मेरे व्यवहार में कोई अंतर दृष्टिगत हो रहा है? उसके प्रति मेरे स्नेह में कोई खोट महसूस हो रही है?’’ उसे लगा, बच्चू के बहाने स्वयं निशीथ के मन में बच्चे की ललक ठाठें मार रही है। वह पिता होना चाहता है। और क्या उसके पिता होने के अधिकार को वह अपनी अमानवीय शर्त के पाँवों तले कुचलकर उसके प्रति निर्दयी नहीं हो रही, संभवतः स्वयं पिता बनकर निशीथ बच्चू के लिए अधिक संवेदनशील और उदार पिता साबित हो। शायद आने वाला बच्चा उस तीनों को अधिक सुदृढ़ता से जोड़नेवाला सेतु सिद्ध हो। उसने गर्भपात कराने का निश्चय बदल दिया...
कुर्सी पर अधलेटी-सी हो उसने आँखें ढाँप लीं। कैसा दड़बे-सा कमरा है उसका। बिजली जाते ही अँधेरी सुरंग-सी हो उठती है, कमरे के ऊपर ढही पड़ती-सी दीवारें। कितनी लिखा-पढ़ा की है अधिकारियों से उसने कि काम-काज के लिए उसे कोई अन्य जगह दे दी जाए। कोई भी। भले ही वह वातानुकूलित न हो मगर उसके सीने पर आसमान की ओर खुलती कुछेक खिड़कियों के सीखचे अवश्य हों, जिनसे टिककर वह अपने होने को अपने भीतर महसूस कर सके। घर और कार्यालय दोनों ही जगह वह अपने होने को महसूस करने के लिए निरंतर छटपटाती रहती है। घर में खिड़कियाँ बहुत हैं, मगर वे खुली होने के बावजूद उसे उसके होने की अनुभूति से नहीं पूरतीं। उसे लगता है कि वे खिड़कियाँ, खिड़कियाँ नहीं रह गई हैं दीवारों का हिस्सा बन गईं हैं जिनके पट जंग खाई सिटकनी के चलते कभी न खुल पाने के लिए अभिशप्त हैं...
‘‘अंदर आ जाऊँ साहब...?’’
चौंककर वह सीधी हो आई। प्रकाशन विभाग के गुप्ताजी थे, ‘‘लगता है मैंने आराम में खलल डाल दी।’’
‘‘अरे नहीं।’’
‘‘तो कुछ सोच रही थीं...?’’
‘‘बैठिए...बैठिए...’’ उसने उनके प्रश्न का कोई उतर न देते हुए कुर्सी की ओर इशारा किया। ‘‘ऐसा है शोभनाजी, मैं आपकी परेशानी समझ रहा हूँ। जिन लोगों को भेजा जाना चाहिए, वे इत्मीनान से कुर्सी से चिपके बैठे हुए हैं। किसी एम.पी. या मंत्री से परिचय-वरिचय नहीं आपका?’’ उसने प्रश्नभरी दृष्टि से गुप्ताजी की ओर देखा।
‘‘ये निदेशक साहब हैं ठेठ धुर्र। करती रहिए लिखा-पढ़ी। देती रहिए ये कारण, वे कारण। रोती-बिसूरती रहिए अपनी कठिनाई। हथेली पर सरसों नहीं जमेगी। आपको शिमला जाना ही पड़ेगा बतौर फील्ड अडवाइजर...रीडर हैं तो क्या हुआ, जहाँ-तहाँ पटक सकते हैं वे आपको...बस, एक ही पेपरवेट है जो आपके तबादले को कल का कल बल्कि यों कहूँ तो अभी इसी क्षण रद करवा सकता है... मंत्रीजी का एक फोन पहुँच जाए इस धुर्र के पास, फिर देखिए तमाशा... कलाबाजी खाता नजर आएगा। आपके इर्द-गिर्द। अंगद के पाँव की तरह दिल्ली में जम जाइएगा आप साहब।’’
‘‘यही तो मुश्किल है...’’ उसके चेहरे पर हताशा अहेरी के जाल-सी फैल गई।
‘‘अरे मुश्किल-उश्किल कुछ नहीं... निशीथजी से कहिए कोई सोर्स भिड़ाएँ... दिल्ली में रहिएगा और बिना किसी एम.पी., मंत्री की किरपा से।’’
उसके होठों पर कलछाया विद्रूप खिंच आया। जल्दी में नहीं लगे गुप्ताजी, चाय मंगवानी ही पड़ी उसे। चाय सुड़कते हुए गुप्ताजी उसके विभाग के प्रत्येक अधिकारी की जन्मपत्री सस्वर वाँचते रहे। सुनते हुए भी वह सुन नहीं रही थी। उनके जाते ही उसने निदेशक के नाम अपने तबादले के संदर्भ में तीसरा कड़ा विरोध पत्र लिखा और पी.ए. नौटियाल को बुलाकर उसे तत्काल टंकित कर लाने को कहा। फिर अपने द्वारा पिछले वर्ष स्कूल शिक्षकों के लिए संयोजित की गई एक विशिष्ट पुस्तक की टंकित प्रति सामने खींचकर पढ़ने की कोशिश करने लगी।
निशीथ से कुछ कह सकती है...? पिछले हफ्ते से उन दोनों के मध्य परस्पर बोलचाल एकदम बंद है। पहले उनकी कोशिश हुआ करती थी कि जब तक अम्मा उनके साथ है, किसी भी प्रकार की बदमजगी से वे बचें। लेकिन अब उसकी पूरी सतर्कता और संकोच के बावजूद स्थिति ठीक उलटी हो रही है। निशीथ के दिमाग में कुछ जाले पैदा हो गए हैं। वह अपनी समस्त चेतना और विवेक को ताक पर रखकर उन जालों में कैद हो गया है और उसे भी उन जालों की बदबूदार सड़न में घसीटकर अपने हाथों अपनी नाक-मुँह बंद कर घुट जाने को विवश कर रहा है...बंद कर लें अपनी नाक-मुँह...?
...सोने की तैयारी में वह पलंग पर अधलेटी हो पत्रिका पलट रही थी। निशीथ ब्रुश करने गया हुआ था। अचानक पसीने से लथपथ काँपता हुआ बच्चू अपने कमरे से आकर लिपट गया और हिचकी ले-लेकर सुबकने लगा। समझ गई, वह नींद में डर गया है। पुचकारने पर उसने बताया कि सपने में उसने एक विशाल डरावने दैत्य को देखा जो अपनी लपलपाती जीभ लिए उसे निगलने को उसकी ओर बढ़ रहा था। उसने बच्चू को प्यार करके उसके कोमल ह्दय से भय भगाने की चेष्टा की। समझाया-बुझाया कि डरना कायरता है, वह तो बहुत बहादुर बच्चा है। जाए और अपने कमरे की बत्ती जलाकर सो जाए। मगर बच्चू अपने कमरे में अकेले जाकर सोने के लिए तैयार नहीं हुआ। ज़िद ठान बैठा कि या तो वह चलकर उसके पास सोए या फिर उसे अपने पास सुलाए। भयभीत बच्चू किसी आघात से पुनः बीमार न पड़ जाए, यह सोचकर उसने उसे छाती से चिपका लिया और उसे सुलाने की कोशिश करने लगी। पता नहीं कब बच्चू सो गया और उसे भी झपकी लग गई। अचानक उसे महसूस हुआ कि किसी ने झटके से बच्चू को उसके अंक से दबोच लिया है। जब तक वह कुछ समझे बूझे, बच्चू की दिल दहला देनेवाली चीत्कार को सुनकर बदहवास-सी उठ बैठी। कमरे के अंदर का दृश्य देख दिल दहल गया। अशक्त बच्चू को शक्तिभर ऊँचे उठा निशीथ ने निर्दयतापूर्वक पलंग पर पटक दिया था...
वह अपने पर नियंत्रण खोकर पगला-सी उठी। ‘‘क्यूँ प्राण लेना चाहते हो तुम, इस अबोध बच्चे के? क्या बिगाड़ा है इसने तुम्हारा? बोलो? क्या बिगाड़ा है इसने तुम्हारा?’’
‘‘यह मेरी आंखों में प्रति क्षण किरच-सा करकता रहता है...’’
‘‘मगर क्यूँ?’’
‘‘न पूछो तो बेहतर है...’’
‘‘सब्र की एक सीमा होती है...’’
‘‘होती है, निश्चित। और मेरे भीतर भी अब वह चुक गई है...बच्चू मात्र दिवाकर का अंश ही नहीं, उसकी शक्ल में तुम प्रतिपल अपने भीतर दिवाकर को ही जी रही हो। दिवाकर तुम्हारे लिए अतीत नहीं अब भी वर्तमान है, वर्तमान...वह तुम्हारे जीवन से निकलकर आज भी नहीं निकल पाया...’’
‘‘यह सब तुम्हारे संशयी दिमाग के जाले हैं जिन्हें तुम मुझ पर उगल रहे हो...’’
‘‘जाले नहीं सच्चाई है, कड़वी सच्चाई। बच्चू को जब भी मैं तुम्हारे अंक में स्तनों के बीच सिर गड़ाए दुबका हुआ पाता हूँ, मुझे वह दिवाकर नजर आता है...’’
‘‘क्या बकते हो...?’’
‘‘इस घर में, अपने और तुम्हारे बीच इसे मैं और नहीं बरदाश्त कर सकता...मुझे ही नहीं, इस टूटरूँ-टूँ दिवाकर के पीछे तुम मेरे बच्चे की भी उपेक्षा कर रही हो...लगता है रोनू को पैदा ही नहीं किया तुमने...क्यों कर रही हो सौतेला व्यवहार मेरे बच्चे के संग?’’ ‘मेरे’ पर निशीथ ने जिस भाव से जोर दिया, उसके भीतर भरे मर्तबान-सा गिरकर कुछ टूट गया। यह उनके दरमियान मेरे-तेरे की विभाजन रेखा कब आ बैठी दबे पाँव।
‘‘क्या कहे रहे हो, अनर्गल ओछा...समझते हो?’’ घृणा से उसकी आवाज काँप उठी, ‘‘मैं माँ हूँ...बच्चू और रोनू में अंतर कर सकती हूँ?’’
‘‘खूब...पता नहीं क्यों तुम पर मैंने रोनू के जन्म के लिए दबाव डाला। क्यों जिद की पिता बनने की...तुम तो दुबारा माँ बनना ही नहीं चाहती थीं...वह मरे या जिए, तुम्हें इससे मतलब नहीं, उठाया गोद में और पटक आई क्रैच में... जो कुछ करना है अम्मा करें... ’’
सहमा बच्चू घुटने में मुँह छिपाए जड़ बैठा हुआ था। अम्मा भी उठकर कमरे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई थीं। उसने शांत होने और शांति करने की मंशा से स्वर को भरसक संयत बनाया, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता कि तुम अपने मन में बैठी आधारहीन संशयों को उखाड़ फेंको और बच्चू को उसी रूप में प्यार करो जैसे पहले करते थे? तुमने स्वयं दिवाकर बनना चाहा था उसके लिए पिता बनकर।’’
‘‘तुमने बनने नहीं दिया...’’
‘‘यह सत्य नहीं है...’’
‘‘सत्य क्या है?’’
‘‘सत्य इतना-भर है कि इस घर में रोनू के लिए दादी है, पिता है माँ है, किंतु बच्चू के लिए...सिर्फ उसकी माँ-भर है। इस घर में ही क्या, संभवतः पूरे संसार में और मैं उससे उसकी माँ छीनने का अपराध नहीं कर सकती...’’
‘‘ये तुम्हारे मन के भ्रम हैं...लेकिन अब भी ये घर, घर हो सकता है एक शर्त पर। बच्चू को हॉस्टल में डालना होगा...मैंने पंचगनी स्थित रानाडे विद्यालय का फार्म आदि मंगवा लिया है... सोच लो तुम।’’ वह पाँव पटकता हुआ अपने कमरे की ओर चला गया था। अम्मा जैसे मौन खड़ी थीं, मौन ही पलट पड़ी थीं। उस कमरे में रह गए थे सिर्फ वह और घुटनों में मुँह दिए उकडूँ बैठा हिचकियाँ भरता बच्चू!
...कितना कुछ कहना चाहती थी। कहना चाहती थी, जो व्यक्ति मेरे जीवन से निकल चुका है, उसे तुम इस अबोध बच्चे में खोज रहे हो। यह दिवाकर का अंश जरूर है निशीथ, किंतु यह मेरा भी तो अंश है, तुम मुझे क्यों नहीं खोज सके बच्चू में और उसे क्यों नहीं अपना सके? क्या था, वह जो तुम अपनी डायरी के पृष्ठों में दर्ज करते रहे...? दिवाकर से जुड़ जाने के बावजूद जो तुम्हारे ह्दय में उतनी ही तीव्रता से प्रज्वलित होता रहा। और बरसों के अंतराल के बावजूद शमित नहीं हो पाया...
‘‘अंदर आ सकता हूँ मैडम?’’ नौटियाल निदेशक के नाम लिखाया गया उसका पत्र टंकित करके ले आया था।
‘‘आओ’’
‘‘यह पत्र...हाथ से ही भिजवाएँगी बड़े साहब के पास या डाक से...?’’ नौटियाल ने पत्र की टंकित प्रति उसकी ओर बढ़ाते हुए पूछा।
‘‘बैठो... अब यह पत्र नहीं जाएगा।’’
नौटियाल ने चकित भाव से उसकी ओर देखा।
‘‘हाँ, दूसरे पत्र का डिक्टेशन ले लो।’’
‘‘यह ठीक नहीं?’’
‘‘नहीं, यह बात नहीं...यह तबादले के प्रतिवाद में है नौटियाल... और अब मैं तबादले पर जाने के लिए तैयार हूँ...’’
कागज-कलम सँभालते हुए नौटियाल ने अचरज से मैडम की ओर देखा। यह मैडम क्या कह रही हैं...
रचना:
कहानी
रचनाकार:
चित्रा मुद्गल

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